सम्प्रति शून्य
अनुग्रहित आकंठ
विस्मित भ्रांत हूं
हूं चकित आलोक
तम हित रम रहे
अनुबंध गर्हित
रवि रश्मियां
मधुतप्त भीषण
हैं कहीं , क्या बच रहीं?(अब भी?)
काल कज्जल कूट
श्यामल अनाव्रत वक्ष
अचल यॊवन युगल
मदसिक्त कटि
शतदल मुक्त्कुन्तावलि
मदघूर्णित रक्तिम
सकल ब्रम्हान्ड
मूर्छित (वह भी यह भी..आश्चर्य?)
माया..
धर्म हित रत योजना
शिशु जीवन अरक्षित
मंगल प्राकृतिक
चिरमानवी इच्छा...
विकराल
हुयी स्वीक्रत...... (अब ही कब तक?)
कुछ प्रश्न
उत्त्तर सम्प्रति शून्य.....
अगम्य अचल अकथ्य शून्य...
गर ना समझे हो मियां तुम : यह कविता निठारी पर भी है और साथ ही नैसर्गिक, पवित्र, आदिम इच्छा के उन्मुक्त रथ के भटकते पथ पर अग्रसर होने पर भी ।
साभार: आचार्य चतुरसेन रचित वयं रक्षाम: की हिन्द पाकेट बुक्स प्रकाशन का अंतिम पृष्ठ । हिन्दी युग्म पर आलोक शंकर की कविता http://merekavimitra.blogspot.com/2007/02/blog-post_12.html तथा उस पर की गयी मेरी टिप्पणी ।