Tuesday, February 13, 2007

छपास दबा पाना मुश्किल है...





सम्प्रति शून्य

अनुग्रहित आकंठ
विस्मित भ्रांत हूं
हूं चकित आलोक
तम हित रम रहे
अनुबंध गर्हित
रवि रश्मियां
मधुतप्त भीषण
हैं कहीं , क्या बच रहीं?(अब भी?)

काल कज्जल कूट
श्यामल अनाव्रत वक्ष
अचल यॊवन युगल
मदसिक्त कटि
शतदल मुक्त्कुन्तावलि
मदघूर्णित रक्तिम
सकल ब्रम्हान्ड
मूर्छित (वह भी यह भी..आश्चर्य?)


माया..
धर्म हित रत योजना
शिशु जीवन अरक्षित
मंगल प्राकृतिक
चिरमानवी इच्छा...
विकराल
हुयी स्वीक्रत...... (अब ही कब तक?)


कुछ प्रश्न
उत्त्तर सम्प्रति शून्य.....
अगम्य अचल अकथ्य शून्य...


गर ना समझे हो मियां तुम : यह कविता निठारी पर भी है और साथ ही नैसर्गिक, पवित्र, आदिम इच्छा के उन्मुक्त रथ के भटकते पथ पर अग्रसर होने पर भी ।
साभार: आचार्य चतुरसेन रचित वयं रक्षाम: की हिन्द पाकेट बुक्स प्रकाशन का अंतिम पृष्ठ । हिन्दी युग्म पर आलोक शंकर की कविता http://merekavimitra.blogspot.com/2007/02/blog-post_12.html तथा उस पर की गयी मेरी टिप्पणी ।

Saturday, February 3, 2007

वह कौन है ?





वह कौन है जो विश्व को तकली सा नचाता
माँ बन के जन्म देता पिता बन के पालता

बाल बढ़ाये कपड़े गन्दे
होंठों पर मुस्कान सजाये
दुनिया के कोरे कागज पर
अपनी जादू की कूंची ले
सतरंगी जीवन रचता जाता

कान्हा बन कोरी राधा का आंचल छू जाता
होंठों पर खुशबू, आंखों में सपनो सा काजल भर जाता

जन्म नहीं पालन भी जग का
कभी खेत में फ़सलें बनकर
शीतल मंद हवाओं में भी वह
सारी गति यति गीतों में वह

है कौन वो जो अंधियारों में दीपक बन आता
तुम मे है रचा बसा हां सच बस तुम सा
बाहर भी बस, यहीं सब कहीं, मुझमे उसमें

रक्तिम नयनों से कभी विश्व पर ज्वलामुखी सजाता
जीवन का ही नही मृत्यु का भी नृत्य दिखाता
है कौन वो जो विश्व को तकली सा नचाता ?