Sunday, May 20, 2007

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नीचे लिखे को भले न पढें इस लेख को अवश्य पढें ।जयदीप डांगी के नाम पाती ..

कलम की ताकत, और उपेक्षा भी हर कालखन्ड में समानान्तर, को लेकर कई सवाल सर उठाते थे, कभी कभी मन में । यह लेख पढ कर तकनीकि प्रतिभा पर भी वैसे ही सवाल खड़े हुये हैं । अब लगता है, वे सवाल, वह द्वंद मात्र कलम का नहीं था, सवाल बड़ा था । समाज के तथाकथित अगुआओं द्वारा हर उस प्रतिभा को जो उन्हे चुनॊती दे सकती है, दे रही है, जो उन नियमों से कहीं भी अलग हो चले, जो उन्हे सही लगे और उन्होने थोपे, ऐसी प्रतिभाओं का दमन आज नहीं सदियों से । आज बस इसका एक अतिविकृत रूप सामने है ।

गुलाम मानसिकता भी परदे मे ही सही पर है अभी भी । पिछलग्गूपन से पीछा छुड़ाना इतना भी मुश्किल नहीं । कुछ नया कुछ अलग कुछ ऐसा जो आज की कम्पयूटर महाशक्तियों के पांव जड़ से उखाड़ फ़ेंकने की सोंच सके । और जब जगदीप डांगी ने इतनी शारीरिक, आर्थिक और ना जाने कितनी मानसिक समस्याओं के बीच रहकर, लड़कर एक तमाचा लगाया इस मानसिकता पर तो, इसका प्रतिफ़ल उन्हे ये मिल रहा है ।

तकनीकि तॊर पर, जगदीप जी का वेब ब्राउसर,(ना मैंने प्रयोग किया है और ना ही कहीं देखा है पर जितना भी पढा (1) (2) (3) उसके आधार पर) कोई बहुत ही नया अविष्कार नहीं है । पर जरा पीछे छिपे तथ्यों को देखिये, जगदीप ने इसे अपने अंग्रेजी भाषा के सीमित ज्ञान के बाद भी, और केवल ब्राउजर ही नहीं सामान्य जन के लिये इसे सरल, सुबोध बनाने के लिये आफ़्लाइन डिक्शनरी भी दी, कई ऐसे फ़ीचर्स जोडे जो ईंटरनेट एक्स्प्लोरर मे नहीं हैं, और यह सब अकेले । ऐसी प्रतिभा को यदि संरक्षण मिले, समय मिले सुविधायें मिलें, क्या नहीं सम्भव है ? क्या नहीं कर दिखायेंगी ऐसी प्रतिभायें ? इतनी समस्याओं असक्षमताऒं और सीमित साधनों में ही जब इतना कर दिखाया और उद्देश्य बस जन कल्याण, इतना समर्पण है कहां आज ? ऐसी प्रतिभा को सुविधायें देना तो दूर उसके प्रयास की उपेक्षा हो रही है, वादे किये गये और भुला दिये गये ।

एक युवा होने के नाते मैं तो ऐसा ही अनुभव करता हूं कि, ऐसा देखकर आगे कौन जगदीप डान्गी बनने को खड़ा होगा । और वह भी ऐसे समय जब मोटे वेतन लिये कितने ही गैर सरकारी, हां विदेशी पीछे खड़े हैं। ना ही इसे मैं गलत समझता हूं और ना ही मैं इससे बच सका हुं । पर, हजारों नये सपने हजारों नये धधकते ज्वालामुखी मन मे लिये ऐसे प्रतिभाशाली युवा जब जानेंगे डांगी के विषय मे तो कौन आगे आयेगा ऐसा कुछ कर दिखाने की ललक लिये । एक अकेले डांगी के साथ नहीं पूरी युवा पीढी को कुछ भी नया, और वह भी जो जन कल्याण की भावना से किया जाये, ऐसा कुछ भी कर सकने से भयभीत करने के सिवा और है क्या ये ?

दुहराऊंगा मानस जी की बात को और यही ईश्वर से प्रर्थना भी है, कि जगदीप जी के नाम मे निहित दीप जलता रहे । पर उनकी हालत पढ कर निराशा हुयी । राजनीति और राजनेताओं पर से विश्वास तो उठ ही चुका है । हां, जनमानस तक यदि एक वैज्ञानिक की, उसकी मेघा के अपमान की और उससे भी अधिक उपेक्षा की सच्चाई पहुंच सके और कोई सामाजिक प्रयास शुरु हो सके तो कोई बड़ी बात नहीं कि, ऐसी प्रतिभाओं के दम हम दुनिया का नक्शा बदल सकने की कूवत रखते हैं ।
हिन्दी ब्लोग जगत के सभी नियन्त्रिक, अनियन्त्रित, शक्तियों, भक्तियों, मेलों हाटों, तश्तरियों, पतीलों, कलशों, हुन्डों, कुल्लह्डों, उन्मुक्तों, बन्धकों, पुजारियों, सरथियों, ड्राइवरों, मेरा पन्ना, तेरा पन्ना , हम सब्का पन्नों सबसे निवेदन है, कि वैचारिक योगदान में तो पीछे ना रहें..कम से कम इस रपट को पढें अवश्य...किसी भी क्रांति से पहले आवश्यक है, वैचारिक क्रांति । विशेषकर पत्रकार और टी वी न्यूज चैनल्स से जुड़े लोगों से कि इसे आम जन तक पहुंचाना सामाजिक कर्तव्य ही नहीं, व्यक्तिगत जिम्मेदारी है ।
और हां विकीपीडिया के इस लेख को भी पढें, यह जानने के लिये कि उन देशों मे जो आज शिखर पर हैं, ऐसी प्रतिभाओं को किस प्रकार संरक्षण और प्रोत्साहन दिया जाता है ।

Monday, May 14, 2007

थोड़ा आसमान उसका अपना - 3

लड़का डाक्टर है, अच्छा ही है ये पढ़ाई में तेज़ है, पर बी.ए. कर ले, बहुत है, बी.एससी. है ही कहाँ यहाँ, कौन लेकर जाएगा इसे रोज़-रोज़ कॉलेज तक 20 किलोमीटर। अब भई इतनी मेहनत लड़कों के साथ चलो की भी जा सकती है, समझा करिए, बड़ी दिक्कत वाली बात है। दीवारें ऊँची लगने लगी थीं उसी दिन से, पर कितनी खुश हुई थी मैं जब अपने यहाँ भी बी.एससी. शुरू हो गया था, उसी साल। मिश्रा जी ने सबसे पहले पिता जी को ही बताया था, और मैं कहती थी ना कि पिता जी मान जाएँगे उन्होंने एडमीशन भी तो करवा दिया था।
अभी सोच रहे होंगे, कि मैंने बी.एससी. पूरा क्यों नही किया। मुझे तो कोई ज़रूरत ही नहीं थी, क्या करती और अभी भी क्या कर रही हूँ बी.ए. का भी। हँसो और कहो डाक्टरनी हो ना मज़े से बैठी ही तो रहती होगी। घर की दीवारों में आँखें भी तो थीं, बड़ी-बड़ी तेज़ आँखें, आँखें दीवारों की तरह एक जगह रुकी हुई कहाँ थीं, घूमती रहती थीं, मेरे आगे पीछे, ऐसी ही किसी आँख ने क्लास के बाद, वो एक मुसलमान लड़का था ना, मुझे तो नाम भी याद नहीं अब, उससे बात करते देख लिया था। उस दिन के बाद दीवारों ने मुझे बस बी.ए. की परीक्षाओं के लिए ही निकलने दिया, और फिर यहाँ के लिए इनके साथ कार में, तुम्हारे घर भी तो कितना कम आने लगी थी। तुम क्या जानो तुम तो परदेसी ठहरे, आते ही कितना कम थे, कितनी पढ़ाई थी। उस दिन वो आँखें पिता जी की आँखों में समा गई थीं, जब उन्होंने पहली और आज तक आख़िरी बार मुझे थप्पड़ मारा था, पत्थर की आँखें, पथरीली, लाल ईटें होती हैं ना वैसी. . .
तुमने पूछा था काम, काम यहाँ है ही नहीं, मैं तो कहती हूँ माँ जी से कि कुछ नौकर कम कर दीजिए पर मेरी सुनती ही नहीं। मुझे बस खाना परोसना है, बाकी हर काम तो बाकी लोग ही करते हैं। मज़े करो, यही कह रहे होंगे, हँस भी रहे होंगे। सुधा के लिए ये कभी-कभी पत्रिकाएँ ले आते हैं, पर अब तो मन भी नहीं होता कुछ पढ़ने का, और मैं खुद कभी कहती भी नहीं इनसे। मुझसे अच्छा तो मिट्ठू है, अरे वही हरियल कम से कम मन कि बात तो कह सकता है, भले ही पंख फड़फड़ा कर कहे। सोचती हूँ किसी दिन पिंजरा खोल दूँ, उड़ा ही दूँ इसे। पर मेरे घर की दीवारें तो ऊँची हैं कोई पंछी ही बाहर उड़ कर जा सकता है, मेरे और हाँ तुम्हारे जैसे भी. . .इंसान कहाँ से इतनी ताक़त लाएँगे, कि उड़ने की सोच भी सकें. . .
पता नहीं तुम भूल गए या तुम्हें याद है, जब तुम आने वाले थे छुट्टियों मे। कितने दिनों बाद तुम्हें देखने वाली थी, ट्रेन का टाइम 12 बजे था और मैं घर से मिताली दीदी को मिलने का बहाना बना कर 10 बजे से ही बैठी थी तुम्हारे यहाँ। बहाना इसलिए क्योंकि दीवारों की ऊँचाई का कुछ-कुछ अंदाज़ा लगा चुकी थी तब तक, और आई इसलिए थी क्योंकि पंख बाकी थे तब तक। शायद पिंजरा भी नहीं मिल सका था दीवारों को अभी मेरे लिए। दीवारें तो तुम्हारे घर में भी थीं, आँखों वाली, चाची जी की आँखों में, पर मुझे तो रुकना ही था।
आज भी जब इनकी छोटी बहन, मेरी ननद सुधा बार-बार माधुरी से मिलने जाती है, मुझे वही दिन याद आता है, जब मैंने 2 घंटे उन काँटेदार आँखों वाली दीवारों के सामने बिताए थे। मिताली दीदी के कमरे में थी पर जाने कितनी बार चाची जी आकर माँ, पिता जी और दादी का हाल पूछ गई थीं। मुझे तो रुकना ही था, तुम्हें देखना जो था इतने दिनों बाद, पंख भी तो बचे ही थे मेरे तब तक। और फिर तुम आए भी नही. . .पर आज जब सुधा जाती है, मैं मन ही मन यही सोचती हूँ कि मदन आ गया हो, तुम्हारी तरह वो भी बस फ़ोन ना करे, कि आ नहीं सकता अभी कुछ काम बचा है, बड़े आए काम वाले। हमेशा ही लेट-लतीफ़ रहे हो।
कभी-कभी लगता है कि ग़लत कर रही हूँ सुधा को रोकना चाहिए। उसे भी पता चलना चाहिए कि दीवारें ऊँची हैं, सपनों की दुनिया में ना रहे। ऊँची हैं और पत्थर की बनी हैं, कोई सिरफिरा ही तोड़ना चाहेगा, जैसा तुमने चाहा था, मैंने भी, पर मुझे शायद अंदाज़ा था कुछ-कुछ ऊँचाई और मज़बूती का। तुम तो घर इतना कम रहे हो, शायद ना जानते हो, मैं भी तो बहुत दिनों बाद जान पाई थी। पर तुम इतने सिरफिरे क्यों बन गए सुमित, ये क्यों किया. . .?
सुधा जब भी खुश-खुश लौटती है, होंठों पर एक दबी हँसी और थोड़ी-सी मीठी खीझ लिए हुए, जब भी पढ़ते-पढ़ते एकदम से हँस पड़ती है, बालों में उँगलियाँ फिराती है या घर भर में नाचती फिरती है, कभी ज़ोर से कभी मन ही मन खुश होते गाने गाती है, भले ही माता जी उसे कुछ भी कहती रहें, जैसे मेरी माँ कहा करती थी, मैं भीतर से काँप जाती हूँ एक अनजानी-सी खुशी की चमक के साथ डर की बिजलियाँ भी कड़कती हैं, और फिर अँधेरा, काली रात। फिर भी ना जाने क्यों एक संतोष है, पंछी अभी भी चौपाए नहीं बने, ज़मीन पर चलना उन्हें समय ही सिखाएगा अब भी, जैसे मैंने सीखा, कितनी समझदार निकली मैं, नहीं? पर तुम हर कविता का मतलब मुझे समझाने वाले. . .इस छोटे से मेरे तुम्हारे जीवन की कविता का कोई मतलब नहीं, नहीं हो सकता, समझ क्यों नहीं पाए. . .इतने नासमझ कैसे हो गए?
रात बहुत हो गई है, अब बंद करती हूँ, अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है। देखना अभी टयूब लाइट जलाऊँगी और ये सारा अंधेरा तो नहीं कम से कम मेरे आस-पास का तो चला ही जाएगा। पर कभी-कभी जब बिजली चली जाती है, अँधेरे मैं बहुत डरती हूँ तब। पर हाँ तब कोई दिया जलाती हूँ, डर कैसा भाग जाता है मानो दिये से डरकर भागा हो, ये सारी तुम्हें लिखी गई चिट्ठियाँ भी शायद इसीलिए लिखती हूँ। अँधेरे के दिये की तरह तुम्हें लिखी ये चिट्ठियाँ मेरा संबल हैं, पतवार हैं, हथियार हैं, शक्ति हैं मेरी, इन दीवारों के खिलाफ मेरी लड़ाई में, जिसकी शुरुआत तो तुमने की पर मैं साथ न दे सकी. . .
यहाँ कहीं आस-पास होते और मुझे पता दिया होता तो भेज भी देती इन चिट्ठियों को। पर तुम तो अख़बार की उस कटिंग में कैद हो जहाँ तुम्हारे नाम के साथ जाने क्यों लिखा है कि तुमने होस्टल के पंखे से लटक कर जान दे दी, ऐसा क्यों किया? तुमसे आख़िरी बार मिलने भी नहीं आ सकी, तुम्हें विदा करने भी नहीं आ पाई, जैसे तुम नहीं आ पाए थे मुझे विदा करने। कहते तो थे हँस कर कि देवदास की तरह तुम्हारी डोली में कंधा दूँगा, झूठे कहीं के। मैंने भी तो कहा था कि वो तो बस फ़िल्म में था, शरत ने भी अपनी देवदास में बहुत सोच कर भी ये कहाँ लिखा। उसमें तो भाग गया था देवदास, और तुमने, अपनी नहीं मानी, मेरी मानी, शरत की मान ली।
पर मैं भागूँगी नहीं, क्योंकि सुधा को और इस घर की दीवारों को जब भी देखती हूँ अपने घर की दीवारें याद आती हैं, उनमें कैद, मैं खुद याद आती हूँ। मैं तुम्हारी तरह इन दीवारों को और ऊँचा, और मज़बूत नहीं होने दूँगी, हाँ तुम्हारी तरह दीवारों से हार कर उन्हें जीतने की खुशी या और ऊँचा होने का एक और कारण नहीं दूँगी। अगर दीवारें ऊँची हैं तो मैं सुधा को अपने टूटे ही सही पंख दे दूँगी, और उड़ते देखूँगी उसे इन दीवारों के उस पार जहाँ मदन उसका इंतज़ार कर रहा होगा, जैसे तुमने किया था, मेरा उस रात, पर मैं उड़ नहीं पाई, और तुम चले गए. . .जाने कहाँ।
अब तुम्हारी नहीं (लड़ाई छोड़ कर भाग गए किसी कायर की नहीं हो सकती मैं. . .कभी भी नहीं)
कविता
कायदे से तो कहानी यहीं तक पूरी हो जानी चाहिए थी। जाने कितनी पुरानी ठीक इसी के जैसी प्रेम कहानियों की तरह, हाँ, यहाँ थोड़ा-सा और भी कुछ आगे भी हुआ। ये तो नहीं पता कि सुधा और मदन उड़कर ऊँची उठाती दीवारों के पार जा सके या सुधा एक और कविता ही बनी, शादी के बाद भी प्रेमजयी काल के आगे, अपने प्रेमी को पत्र लिखती। सुधा मिट्ठू की तरह पिंजरे में बस मन ही मन फड़फड़ाती रही या उड़ सकी, या मदन भी पेपर की कटिंग ही बना या नहीं। हाँ, उसी रात जब ये लिखा गया, इतना ज़रूर हुआ कि कविता ने इस चिट्ठी को भी बाकी सारी चिट्ठियों की तरह ही पानी में थोड़ी देर भिगोया फिर जब लुगदी बन गई, स्याही काग़ज़ का साथ छोड़ बह गई, तो कूड़े में डाल दिया, और मिट्ठू का पिंजरा छत पर ले जाकर उसे उड़ा दिया। बाकी कविता की ही भाषा में कहें तो, दीवारों की आँखें भी थीं इसलिए पिंजरा फिर से उसकी ही जगह पर रख दिया, दरवाज़ा हल्का-सा खुला छोड़ कर. . . आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही थीं. . .और मिट्ठू का आसमान भी उसका अपना. . .।
शायद आज से एक साल पहले इन मज़बूत दीवारों के उस पार खड़े, सुमित के साथ इनके पार न जा पाने और सुमित के अख़बार की कटिंग बन बचे रह जाने के लिए उसका आज का पश्चाताप इतना ही था, और अपना विरोध जताने का बस यही एक आख़िरी तरीका। बात फिर वही, आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही थीं. . .और मिट्ठू का, सुमित का, सुधा का, मदन का आसमान भी, थोड़ा बहुत उसका भी अपना. . .।

थोड़ा आसमान उसका अपना - 2

घर में कैसे होंगे सब? चाची के जोड़ों का दर्द अभी भी वैसा ही है या फ़ायदा हुआ उस दवा से जो चाचा जी लाए थे जब मैं आई थी, देखा था मैंने। बेचारे कितने मन से लाए थे और चाची भी बस, सुन ही नहीं रही थीं। चाचा जी तो ठीक ही होंगे। अच्छा, उनकी वैचारिक गोष्ठियाँ नहीं होतीं क्या अब? वो क्या नाम था, "फक्कड़ सभा", अभी तक एक-एक गोष्ठी याद है मुझे तो, छुप-छुप कर सुनते थे हम। नारी मुक्ति, दलित विमर्श और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सबसे आगे हिंदी की समस्या। ख़ैर मुझे तो हँसी भी आई थी यही बात याद करके जब तुम्हें चाचा जी ने इंग्लिश स्कूल भेजा था पढ़ने के लिए, 12 के बाद, हॉस्टल में रहने। जाने कितनी बातें हैं बस बोलने और सुनने में अच्छी और आसान-सी लगती हैं, हाँ करने में उतनी ही अजीब और मुश्किल. . .।
अच्छा उन गोष्ठियों की एक-एक बात समझाने में मुझे कितना समय लगता थ, और तुम कैसे चढ़ाते थे मुझे, दुष्ट कहीं के। याद है, कैसे हिमांशु जी ने वो कविता सुनाई थी, और फिर कहा था, "देश मे प्रेम सर्वाधिक प्राचीन और हाँ साथ ही सर्वाधिक उपेक्षित विषय है, घर-बाहर कितना अंतर आ जाता है, इसके बारे में सोचने में, पढ़ तो सकते हैं, पर कर नहीं सकते, स्वीकार नहीं कर सकते, करता देख नहीं सकते। जिसने किया वो मानने से कतराता है, किसी और को देख उँगलियाँ भी उठाता है। और जाने कितने पड़े हैं जो कभी स्वीकार ही नहीं करते प्रेम, सफ़ाई में बच्चन की बातें, "प्रेम किसी से करना लेकिन करके उसे बताना क्या, झूठे, कपटी।'' उन दिनों कैसे हम परदे के पीछे से सुनते रहते थे ये बातें, बाहर कौन जाए बाप रे, चाचा जी के ग़ुस्से से तो अब भी डर ही लगता है। मेरे बाबू उनके इतने जिगरी दोस्त न होते तो मेरी ही क्या मजाल की मैं तुम्हारे घर आ भी सकती, और तुम भी इतने घर घुस्सू कहीं के, कि कहीं जाते क्यों नही थे। फिर चले गए हॉस्टल अपनी पढ़ाई करने, और अब. . .अब तो।
पता नहीं, अभी भी उनकी वो कविता मंडली वैसी ही है या अब कम हो गई? कितनी कविताएँ सुनी हैं हमने वहाँ। पराग जी, हिमांशु जी, अजय भैया सब अपने में मस्त ही होंगे? उनकी कविताओं की याद अभी भी आती है, कितनी बार इन लोगों की कविताएँ सुन कर बस मन में नए-नए अर्थ दुहराती, नई-नई कल्पनाएँ जोड़ती घर लौटती थी। अब लगता है वो सिर्फ़ अर्थ नहीं थे, इंद्रधनुष के कुछ बिखरे टुकड़े थे, जिनसे पूरा आसमान नापना चाहती थी। एक किनारे खड़े तुम और दूसरा किनारा मेरा, इस इंद्रधनुष के सहारे दूसरे किनारे पर, जैसे चिल्लाकर बोलती, "इतने किलोमीटर सुमित,'' तुम सुनने के बाद भी कान पर हाथ रख कर कहते "क्याSSSSSSSS?"
जाने तुम्हारी बड़ी दीदी, मेरी प्यारी, मिताली दीदी भी कहाँ होंगी आज कल? उनकी कितनी याद आती है। अब, ये मत पूछने लगना कि इतनी सारी यादों के बीच तुम्हारी नहीं आती क्या? तुम हो ही ऐसे रास्ते के रोड़े जैसे, जब भी निकलती हूँ इधर से, कभी अनजाने और हाँ ज़्यादातर जान बूझकर तुमसे चोट खाकर गिरना आदत-सा बन गया है, और कितनी बार गिराओगे अभी? खेलते-खेलते धक्का देकर गिराना तो आदत थी ही तुम्हारी, पर फिर भागते क्यों थे, भगोड़े, डरपोक, अभी भी गुस्सा ही आता है तुम्हारे ऊपर, मेरी कितनी नई फ्राकें गंदी कीं तुमने, खेलना कभी आया नहीं तुम्हें बस लड़ाई करना आता था। पर लड़ाई करने की आदत यों भूल कैसे गए तुम, एक बार और लड़ नहीं सकते थे, जैसे मैं लड़ रही हूँ। दीवारों से लड़ाई अपने टूटे हाथों, पंखों के बाद भी, किसी खिड़की के खुलने की आशा में नही, बस एक ठंडे हवा के झोंके के इंतज़ार में, नए पक्षियों के लिए आशा का दीप जलाती, कहीं भूल ही ना जाएँ ये नए पक्षी युद्ध लड़ना. . .
सुना था मिताली दीदी की शादी हो रही है, पर मैं जा नहीं पाई। इन्हें बहुत काम रहता है। मुझे? मुझे तो कोई ख़ास काम नहीं घर में, पर माता जी को देखने वाला कोई तो चाहिए। अब ये मत कहना की सेठानी बनी बैठी रहती हूँ, ख़ैर बैठी तो रहती ही हूँ पर सेठानी नहीं डाक्टरनी बनी। दाँत निकालो और कहो फिर तो दिन रात बीमार ही बनी रहती होगी।
यहाँ पर भी सब अच्छे हैं। सुधा, इनकी छोटी बहन, का इस बार बी.एड. है, माता जी की पूजा में मैं भी बैठने लगी हूँ, अब ये मत कहना की पुरी भक्तिन ना बन जाना, तुम ये हर बात से नई बात क्यों गढ़ने लगते थे। नया घर अच्छी जगह लिया है इन्होंने, आस-पास अच्छे लोग हैं। ये तो ख़ैर इन्होंने ही बताया, मैं तो कहीं नहीं जा पाती। पता नहीं क्यों पर मुझे लगता है, जैसे इस घर की दीवारें बहुत ऊँची हैं, ठीक जैसे पुराने घर की थीं, जैसे मेरे घर की थीं, जैसे तुमने कभी कहा नहीं पर तुम्हारे घर की थीं, तुम भागते क्यों रहे सच से हमेशा। सुधा से भी मैंने पूछा एक दिन की क्या ये दीवारें हमेशा से ही ऐसी ही ऊँची रही हैं, उस पुराने घर में मैं तो नई ही थी, उसने भी वही कहा जो मुझे अपने घर के बारे में लगता था, सच क्या है कौन जाने? इतने मुखौटों के बीच असली चेहरे कहाँ है, कौन जाने? वो भी मेरी तरह जान ही नहीं पाई की दीवारें रातों-रात इतनी ऊँची हुईं कब, कैसे? मज़बूत हैं. . .इतना आभास तो उसे भी रहा बचपन से, मेरी तरह, सड़क तक पार करने में बाबू की छंगुनिया के रूप मे, शाम कभी देर से आने पर माँ की डाँट बन, और जाने कहाँ-कहाँ।
सच, ऊँची दीवारों में रहती हूँ ये मुझे अपने घर में कहाँ पता था। उन दिनों जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, और तुम शहर के होस्टल वाले स्कूल में, दिखती नहीं थी शायद ऊँचाई, रही ज़रूर होगी, मेरे बिना जाने तो कभी कुछ वहाँ बनवाया भी नहीं गया। पता नहीं शायद मैं सो रही होऊँ और रातों-रात दीवारें ऊँची हो गई हों। हँसो मत, मुसकाते तो ज़रूर रहे होंगे तुम, सुधर नहीं सकते तुम, कहीं भी रहो। सच कह रही हूँ, कभी जाना ही नहीं, कब मैं बढ़ती गई और वो दीवारें भी तो बढ़ ही रही थीं साथ-साथ ही। मेरा बढ़ना कुछ पसंद-सा नहीं आया इन दीवारों को शायद, पर जाने जो अपनी-सी लगती रहीं, जिन पर मैंने खुद पेंटिग्स बना-बना कर सजावट की, झाड़ू मार-मार कर सफ़ाई की, सजाया, जो मुझे धूप से, ठंड से बचाती रहीं, वही दीवारें धीरे-धीरे मेरे बिना जाने यों इतनी ऊँची, कैसे, क्यों होती गईं. . .
कई दिनों से देख रही हूँ ये मिट्ठू बहुत परेशान-सा है। अब ये मत पूछ्ने लगना कि ये मिट्ठू कौन, नहीं तो समझ लो. . ., अरे वो हरियल जो मिताली दीदी ने दिया था मुझे, हरियल को यहाँ साथ ही लाई थी, बताया भी तो था तुमको, और तुम ग़ुस्से में चले गए थे बाहर। भूल गए भुलक्कड़. . .हाँ इन्हें कुछ हरियल नाम पसंद नहीं आया। इन्होंने कहा, तो मुझे भी लगने लगा कि हरियल कुछ गँवार-सा नाम है, शहर का नाम, मिट्ठू, अच्छा है ना। पर फिर लगता है कि, नाम बदल गया ये उसे क्या पता, लगता है कि उसे इससे भी कोई फ़र्क नही पड़ता कि उसका कोई नाम भी है। गाँव में रहे तो हरियल शहर में रहे तो मिट्ठू, पर रहेगा तो पिंजरे के ही भीतर, जो हम खाने को देंगे वही तो खाएगा ना। और उड़ना चाहे तो उड़ेगा कैसे, पिंजरा जो है। इसे आज कल जाने क्या हो गया है, इतने पंख फड़फड़ाता है, जैसे लड़ रहा हो किसी से, चाहे जो खाने को दो सुनता ही नहीं कुछ, इसका पिंजरा छोटा है शायद। अभी कुछ दिन पहले छत पर लेकर चली गई थी इसे शायद आसमान देख लिए इसने भी, अब रह नही पा रहा है, इसकी ऊँची-ऊँची, पिंजरे की दीवारें छोटी पड़ रही हैं शायद, काटने को दौड़ती हैं जैसे इसे, बस खुशी इस बात की है, खुद लड़ना भूला नहीं, रोता नहीं अपनी कैद पर, हार नहीं मानी इसने। अब कैसे पूछूँ इससे इसकी भाषा भी तो नहीं आती। तुम्हें आती है? तुम्हें क्या आती होगी, आती होती तो. . .
जाने आज क्यों वो सब याद आ रहा है, हमारा घर, उससे बस 3 गलियाँ दूर तुम्हारा घर, मिताली दीदी, तुम, चाचा जी, चाची, माँ, पिता जी, बुआ और भी बाकी सारे भी। और हाँ वो मैथ के सर क्या नाम था. . .हाँ, मिश्रा जी, वो जाने कैसे होंगे। सच पूछो तो ऐसे कितने लोग हैं जिनकी याद आनी चाहिए पर नहीं आती। मिश्रा सर का वो चेहरा तो अभी तक याद है, जब कितनी खुशी से वो पिता जी को बता रहे थे कि मैं मैथ्स में बहुत तेज़ हो गई हूँ और मुझे बी.एस.सी. करनी ही चाहिए, पर पिता जी का कहना था क्या करेगी, इसकी तो शादी की बात भी चल ही रही है।

थोड़ा आसमान उसका अपना - 1

सुमित,हमेशा की तरह, मैं खुश ही हूँ, तुम कैसे हो? कितने दिन हो गए तुमसे मिले। तुम्हारा क्या है, तुम तो अब भी वैसे ही कहते होगे सबसे बड़ी शान के साथ, "कविता, मैं किसी को याद नहीं रख सकता! तुम तो एकदम याद नहीं आतीं, मैं तो हूँ ही ऐसा।" पर मैं जानती हूँ तुम कैसे हो। ऐसा है ज़्यादा हाँकने की कोशिश मत किया करो। जैसे हो वैसे ही रहो तो अच्छा। अभी तो तुमने ऐसी दीवार उठा दी है कि तुमसे मिलना, पहले के जैसा ही हो चला है, पहले कम से कम एक आशा तो रहती थी कि तुम दिखोगे, अब तो तुमने वो भी गिरा ही दी है।
क्यों किया तुमने ऐसा, क्या और कोई रास्ता नहीं था, जिस तरह मैं चल रही हूँ, तुम क्यों नही चल पाए। "क्या जो बीत गई सो बात गई" का पाठ स्कूल में बस मैंने पढ़ा था, सुनाते तो बहुत शान से थे तुम, जैसे सब समझ रहे हो, "अंबर में एक सितारा था माना वो बेहद प्यारा था", कहते-कहते कैसे तुम धीरे से देखते थे आँखों से हँस देते थे, मुझे लगता मैं हरी दूब पर सुबह सुबह नंगे पाँव चल रही हूँ, ताज़ी ठंडी हवा के बीच, ठंड से लिपटी, खुशबू मे डूबी, फूलों से भरे गुलदान-सी शरम से लकदक!! अब कहो कुछ, अब तो अच्छा लिखने लगी हूँ ना. . .