Friday, January 26, 2007

एक मशीन बची है





उसकी वो


उसकी
इस नदी के किनारे
जाने कब से
राह तकती वो
वापस नही गयी
नदी बन आज भी बहती है ।

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अंधेरा


अंधेरा हुआ
झींगुर लगे रोने
जुगनु चमकने

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खुशबू


पूरी ना उड़ जाये कहीं
डर से तुमने
शीशी इत्र की झट से
बस एक बूंद बिखेर
बन्द कर ली
बाग के खिले फ़ूल को कोई डर क्यों नहीं ?

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उसका कहा


ऊंची खिड़की का एक पट खोल
झांक, उसने
आवाज़ और आंसू दोनो दबाते कहा
जानते हो मेरे घर में
तुम्हारे लिये
बस ये खिड़की ही खुली है
दरवाजे नहीं
उनके तालों की चाभी
तो तुमने वहां उतने नीचे
होते ही गवां दी ।

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मशीन


कविता, कहानी, उपन्यास और व्यंग
लिखे, जोड़े
और तालियों के सपनों मे सो गया
कुछ और नहीं बस
एक और कवि मरा पड़ा है
शब्दों का जाल बुनती मकडी और
एक मशीन बची है


Monday, January 22, 2007

हे महाप्राण !




मुझसे निराला की एक कविता नहीं पढी गयी । ये जानते हुये भी की हिंदी के बड़े कवि थे । बस एक बचपन मे पांचवें की हिंदी की किताब मे सरस्वती वंदना के तौर पर लिखी, 'वर दे वीणा वादिनी वर दे', वो और हां वो 'वह तोड़ती पत्थर' । पर एक और बात की शुरुआत मे भली भली सी दिखने वाली ये कवितायें अंत तक आते आते भयावह हो जाती थीं, और हम यही मनाते थे कि इंम्तिहान मे ये न आवे बस । निराला एक विशेष पाठकीय अनुशासन की मांग करते थे, जो था नहीं । और फ़िर हिंदी से जैसे तैसे पल्ला छूड़्वा ही लिया । उनकी कवितायें निराला पार्क मे लगी उनकी प्रतिमा (सर भर था और बाकी नीचे वही सब जो यहां मिल सकता है), हां तो उनकी प्रतिमा के इर्द गिर्द खेलते हुये हमने ये जरूर सुना था की, बड़े कवि थे, और आज कहने मे कोइ झिझक भी नहीं कि कई बार मिलान भी किया था, खेल कूद कर थक चुकने के बाद कि, क्या इन्होने ही वर दे वीणा वादिनि वर दे लिखी होगी कभी, लिखी तो हिंदी मे कविता लिखी ही क्यों ?

उन्नाव शहर (जहां गढाकोला है, निराला का पैत्रक गांव और जहां कचौड़ी गली है, निराला जहां रहा करते थे) मे दो-तीन जगह निराला मिल ही जाते है, आज भी । निराला पार्क मे निराला, कचॊड़ी गली के सामने(मूर्ति अनावरण के इंतजार में) निराला, निराला प्रेक्षाग्रह के मैदान मे बुत बने निराला और राजकीय पुस्तकालय मे घुसते ही सामने खड़े दढियल और लम्बे बालों वाले निराला । इसके अलावा निराला और कहीं मिल जायें तो इसे मात्र एक संयोग कहा जायेगा, लेखक की इस जानकारी पर कोई खास गारंटी नहीं ।
हां एक और बुत था जिसे हम कफ़ी समय तक निराला का ही समझते रहे, कई सालों तक उसका बोरका नहीं उतरा तो तांक झांक कर देखते रहे, फ़िर जब "सह धूप घाम पानी पत्थर", चल नहीं पाया बेचारा बोरका तो नीचे लगे पत्थर ने राज़ खोला कि थे तो निराला ही पर अब कहे कोई माई का लाल कि कॊन है, तो पुरे १०० रुपये का पत्ता इनाम ।

अरे हां एक महाविद्यालय है, नाम भले ही कुछ हो, हम उसे बस "निराला" नाम से जानते हैं, जिसकी महिमा ये कि परीक्षा काल मे "बैच बैच" का दारुण क्रन्दन सुन आंसुओं से झीलें, ताल, तलैया नहीं भरते वरन पुस्तकों से झॊवे भर जाते हैं । जो पाठक ना जानते हों उनके लिये, झॊवा अर्थात एक विशेष प्रकार का लकड़ी का टोकरा, जिनका मुख्यत: प्रयोग गोबर ढोने मे किया जाता है । इसका अर्थ कदापि यह न लगायें कि कदाचित गोबर कम हो गया, उन्नव सहर मे सो किताबें ढोई जा रहीं । अस्सल बात ये कि "निराला" विद्यालय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (ये इसलिये लिखा की पाठक जान सकें कि लेखक पूरा नाम भी जानता है, कोई कच्चा, नौसिखिया नहीं है) की भांति "आम जनता के हित" की सोंच प्रति वर्ष ढेड़-दो सॊ स्नातक और परास्नातक पैदा करने हेतु कटिबद्ध है ।

निराला उपेक्षित नहीं हैं, हर साल बसंत पंचमी के अगले दिन का अखबार उन्नाव के पन्ने पर किनारे किसी ना किसी गोष्ठी की खबर छापता जरूर है । इतिहास बेदम कर देता है, खुद को पढा-पढा कर भी और अपेक्षाओं से भी, और उपर से तुर्रा ये कि "सीख हम बीते युगों से नये युग का करें स्वागत" । क्यों भाई ऐसा क्या धरा है कि बीते युगों से ही सीखा जाये.....निराला कचॊड़ी गली मे भटकते पाये जाते थे, आज भी उधरिच कहीं पड़े होंगे ।

हे निराला आप भाग्यशाली हैं कि कम से कम अखबार का एक कोना तो आपकॊ नसीब है । उसी कचॊड़ी गली की तरह गलियां और गढाकोला की तरह जाने कितने गांव उन्नाव ही नहीं भारत मे ऐसे भी हैं जहां रोज कोई ना कोई निराला और उसकी सरोज अंजान मर जाने के लिये अभिशप्त है । रोज कोई परिमल और रोज कोई सरोज स्मृति घुट रही है । क्यों ? हे महाप्राण, मेरे पास आज इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं कि हिंदी बोलने वाले हिंदी पढते क्यों नहीं, और क्यो पढे अगर हिंदी बाजार से लड़ नहीं पा रही ? महाप्राण क्षमा करें मैं जो खुद को आपके शहर उन्नाव का कह्ता हूं, पर यह बस खोखले गर्व की बात भर है मेरे लिये । मैं आज का युवा हूं, आज तक आपकी कवितायें नहीं पढ सका हूं, और पढूंगा भी तो समझ पाऊंगा कोई भरोसा नहीं, हे आम जनता के कवि मुझे खुद को बाजार मे आगे देखना है, तुम्हे पढ्कर कोई फ़ायदा नहीं । हां तुम बुत बने खडे रहना घर आऊंगा तो तुम्हे देख प्रणाम तो करूंगा ही.....

Sunday, January 21, 2007

आओ अब कुछ नया लिखो




छोंड़ धूप का कोट, छांव की पतली शर्ट पहन
ढीला पैजामा सपनों का ,हैट रसीली पुरवा
करे कभी मुस्कान कबड्ड़ी होंठों पर
मन में तो दिन भर ही उधम मचाती हो
मस्ती का एक धूप-छांव का चश्मा ले लो
दोस्त आज कुछ अलग दिखो
आओ अब कुछ नया लिखो

मटमैले मैदानों मे धूसर
जाने कितनी भागम भागी
मन भर मारो हाई जम्प
और नयी कोई चोटी छू लो,
चुन लो सागर से मदहोशी
पागल लहरों से प्रलय सीख लो
दोस्त आज यह सोम चखो
आओ अब कुछ नया लिखो

बहुत हुआ आंखों का झीलों सा,
होन्ठों का मूंगे सा दिखना
खुश होना ताली दे हंसना
थाली ही में चांद देखना

आंखें मीठी रसगुल्ले सी,
होंठ मिर्च से तीखे देखो
छोंड़ो, मोड़ो, बदलो, तोड़ो
जी टी रोड़ जो हुयी पुरानी आज नयी पगड़ंड़ी पकड़ो
और चांद को खींच गली मे
डोर फ़ंसा कुछ देर घसीटो
आओ कुछ तो नया लिखो

Friday, January 19, 2007

एक कहानी होना चाहती है । -३

(जब काफ़ी देर तक नारद बाबा ने दिखाया ही नहीं, भाग २ का लिंक तो अपना लिखा जबरिया पढ़वाने का इससे सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ तरीका और कुछ मिला नही, कोई भी पाठक आहत हुआ हो, तो खुदा राहत दे)

http://upasthit.blogspot.com/2007/01/blog-post_13.html

एक कहानी होना चाहती है । - भाग २


(पेश-ए-खिदमत है ये बचा खुचा भाग, जो हो सकता पहले भाग से कहीं से भी जुड़ा न लगे, मेरी भुलक्कड़ लेखनी जिम्मेदार है....मुआफ़ी चाहूंगा)

कहानी जाड़ों मे भी न जड़ाने वाली हसीना की

जाड़ों मे भी न जड़ाने वाली हसीना कल रात थी । यहीं एयर्पोट, ३ डिग्री टेम्परेचर, सर पर गुलदान, चित्तीदार चश्मा, जैकेट कम फ़तुही ज्यादा, घुटनो की गोलायी से बस बलिश्त भर दूरी तक उटंगी जींस, बाकि ज़मीन तक, मेरी, औटो, टैक्सी और साथ खड़े अंकलों की चिपकी आंखें चिपकाये । बहरहाल बावारी नजरों का एक गैर जरूरी हिस्सा, अंशदान स्वरूप, उसके झुकने से पैदा की गयी, उठते टाँप, गिरती जींस के बीच किसी "कुछ" की सम्भावना पर भी, भरपूर । वैसे संभावनायें अंदर Air hostess की काफ़ी दूरी तक ऊपर की ओर खुली हुई स्कर्ट मे भी बस मुझे ही नहीं मिली होगी, ऐसा ख़याल है । फ़िर हुआ कुछ यूं की, खुदा मेहरबान तो गधा भी पेलवान । "आर यू आलसो गोइंग........ नोयडा", अब तो नोयडा ना भी जाना हो तो, "नो" ना निकले । आटो शेयर हुआ और रास्ते की हैरानी जाड़ों मे ना जड़ाने वाली हसीना के कुछ कुछ बहुत कुछ दिखते से परे, उसकी बच्चों सी हंसी पर ज्यादा । बच्चों की हंसी का कोइ कारण होता हो सकता क्या ?

कहानी लटकटे झोले झुकती कमरों की

झोला लटका था, कमरें झुकी थी, एक नहीं दो दो । एक झुकी कमर के हाथ मे झोला, कमर झुकाता, कदम लड़खड़वाता ही चला जा रहा था कि दूसरी झुकती कमर ने झोला छीन सा लिया और कुछ देर उठा खुद लड़खड़ाने लगी । फ़िर, वहीं एयर्पोर्ट की दीवाल से लगी सीट पर बैठे , भीड़ से दूर, भीड़ मे कहानी खोजते दिखा कि अब दोनो कमरें बराबर, नार्मल लड़खड़ा रही थीं, झोला लटक नहीं रहा था, सधा, दोनो कमरों के हाथों मे । एक बध्धी-एक कमर वाली का हाथ, दूसरी बध्धी-दूसरी कमर वाले का हाथ । बूढे के गालों पर, बुढिया की आंखों मे हंसी थी, बस ।

कहानी फ़ेंकी किताब और इडीयट बच्चे की

वो जो उसकी माँ सी ही लग रही है, कहती है "ईडियट", और वो, उसके हांथों से किताब, छीन, जमीन पर फ़ेंक विरोध जताता है । वह उधर कहीं भाग जाता है, वह वहीं बैठी रहती है, थोठी देर किताब घूरती है, जैसे, "भाग गये उस इडियट" का कोइ हिस्सा उस किताब मे अभी भी है । हाथ झुक कर किताब बैग मे रख देते हैं, पर आंखें अभी भी "ईडियट" से गुस्से मे ही हैं, ढूंढ भी "ईडियट" को ही रही हैं । १० मिनट बाद आंखें, टांगों को सीधा करती हैं, और दूर तक "ईडियट" को देखती हैं, इधर-उधर, फ़िर से टांगों को टेढ़ा होने देती हैं, वापस कुर्सी पर । अब वही आखें ये झुठलाने कि पूरी कोशिश मे हैं, की उन्होने ही टांगों को सीधा करवाया था, कारण.... शायद ये कि "ईडियट" भीड़ से अलग गिफ़्टस की दुकान पर दिख गया ।

कहानी चिड़िया उड़, चमकती आंखों और बात की

नयी शादी हुयी हो और कोई इसे समझ ले बस देख कर, कोई खास बात नहीं । इस नियम से यह सिद्ध हुआ कि, मैंने कुछ खास नहीं किया, मुझे तो खैर वो दिखे ही नहीं, उसका उसके मोटे (मजबूत और मांसल भी गलत शब्द नहीं) कंधे पर धीरे-धीरे, प्यार में, फ़िरता मेहंदी लगा हाथ भी दिखा, तब तो क्या ही कोई बात हो सकती है । बच्चे जब Flight लेट हो तो चिड़िया उड़ खेलें इसमे भी क्या बात । हां पर, चिड़ियां उड़ मे बकरी के उड़ जाने के बाद, हाथ जोड़ मार खाती बहन के हाथ बचाने के तरीकों को देख, मेरी कहानी खोजू आंखों को मेहंदी लगी आँखें अगर हंसता देखें, कंधा सहलाता हाथ दो पल रुक जाये, और फ़िर खुद भी, आंखें चार हों हंसने लगें, क्या तब भी कोई बात नहीं ?

ऐसी फ़ुटकर और निहायत ही फ़र्जी कहानियां देख, कहानी और नया साल की बात नयन से सुनते ही मैं चौकन्ना हो जाता हूं । सुधीर से फोन पर हुयी बात याद आती है, अभी कुछ दिन पहले ।

"यार सोंच रहा हूं, एक कहानी नये साल पर लिखी जाये ।"
"हां हां लिखो लिखो..तो ?"
"तू बता, तू क्या सोंचता है, कैसी होनी चाहिये नये साल की कहानी ।"
"मैं क्या बताऊ यार, तू लिख लेता है, तू लिख यार, मैं क्या बता सकता हुं ।"
"अच्छा मैने सोंचा है कुछ, सुनाऊं ?"
"सुना ले भईये"
"देख, कहानी ये है की दो-तीन लौन्डे हैं, एक अपार्टमेंट मे रहते हैं, न्यू इयर पार्टी मे जा रहे हैं, ३१ दिसम्बर की रात ..."
"हूं, अपने ही आस पास की लिखोगे साले, फ़िर...."
"निकलते है बाहर तो बगल के घर से एक बुढ़ढ़े के रोने की आवाजें आ रही हैं, पता करते है तो बुढ़्ढे अंकल बताते हैं की, बेटा अमरीका मे है, और बुढिया बीमार है । अपने अल्लाह के बंदों मे से एक की गर्ल फ़्रेंड का बार बार काल आ रहा है, "कहां हो, कहां तक पहुंचे", उसका कुछ खास मन भी नहीं बुढ़्ढों के पचड़े मे पड़ने का । पर फ़िर भी बंदे पार्टी छोंड़ कर बुढ़िया को हास्पिटल पहुंचाते हैं, गर्ल फ़्रेंड वाला बंदा तो पूरे मन से रात भर बुढिया की तीमारदारी करता रहता हैं ये जान कर भी कि निधी नाराज हो चुकी है, और भाई लोग समझ जाते हैं की सच्ची न्यू इयर पार्टी क्या है ।",
उधर से थकी सी आवाज आती है, "क्या बे ये भी कोई कहानी हुई ?"
"हा बे सोंचा तो यही था, पर कहो तो अपने अल्लाह के बन्दों को पार्टी मे भेज दिया जाये"
मेरा इतना बोलना था कि, सुधीर खुद शुरु हो गया......
"और हां फ़िर हो भी क्या सकता है साले, बुढिया रात की बीमारी में मर जाती है, लौंडे लौट कर आते हैं और पछताते है, कि साला थोड़ी देर से चले गये होते तो बुढिया बच गयी होती । साले कलाकार की दुम, इससे ज्यादा और क्या सोंचेगा तू..... अच्छा तेरी अकल मे ये नहीं आया की, अंकल ही क्यों नही चले गये डाँक्टर बुलाने या काल ही कर ली होती हाँस्पिटल ?"
"हां बे ये बात तो सोंची ही नहीं, कोई नहीं, टांगें तोड़ दें उनकी, कहो तो लकवा मरवा देता हूं, ये भी कम लगे तो अंधा कर दूं । गायब ही ना कर दूं सीण से, केवल बुढिया को रखा जाये ।"
"नहीं बे बहुत नाटक हो जायेगा,.... हां ये कर सकता है की अंधी बुढिया बीमार हुयी तो अंकल किसी को बुलाने बाहर की ओर चले और फ़िसल कर गिर गये, पैर की हड्डी टूट गयी, अब ना वो चल सकते हैं न और कुछ कर सकते हैं सो रो रहे हैं और बुढिया तो बुखार मे मर ही रही है ।"
"साले.... ये किस एंगल से नाटक नहीं लग रहा है ?...."
इस सारी कहानी के नाटक सबित होने के गम ने १ मिनट की चुप्पी रही और इस बार सुधीर फ़िर शुरू हुआ ।
"अच्छा ये सुन,पुरानी कहानी से लौन्डों को काटो, एक बुढ्ढा एक बुढिया एक घर । बाकी कोई नहीं, रात आया एक चोर । कीमती सामान ढूंढने के बीच तिजोरी जैसी चीज मे चिठ्ठियां पाता है, दो, सुसाइड नोट, बुढ्ढे और बुढ़िया के अलग-अलग, दोनो जिन्दगी से परेशान एक दुसरे के नाम से चिठ्ठी छोंड़ कर मर रहे हैं, अलग अलग कमरों मे, ये बिना जाने के दुसरा भी मर रहा है।"
"सही बे सही.... पर माँ के..... नया साल किधर कू गया रे ?"
"ऎं.... नया साल, अच्छा हां कहानी तो उसी पर है, रुक-रुक सोंचने तो दे।"
थोड़ी देर की चुप्पी, सुधीर फ़िर शुरु हुआ .... "देख अभी मरे थोड़े ही हैं बूढा और बुढ़िया, पर चोर एक बार देख कर यही सोंचता है कि मर गये साले दोनो । चोर पहले पैसा ढूंढ़ता है, माल जेवर बहुत मिला, कटने की सोंचता है, और हाँ कहानी सुनायेगा, यही अपना ००७ जेम्स चोर । उसके अपने घर की हालत खराब है, गांव भी पैसा भेजना है, बीवी की फ़टी साड़ी और बच्चों के नंगे तन, उनका कबाड़ बीनना ये सब बार-बार दिखा, याद दिला । पर साब, आखीर मे साँच को आँच क्या, पैसा लेकर भागते हुये एक बार फ़िर नज़र पड जाती है बुढिया पर और चोर अपणे इन्साण होणे के फ़रज को निभाये है, हास्पिटल पहुंचा कर पैसे वैसे दे कर कट लेवे है, भारी सा , संतुष्ट सा मण लिये...हें हें हें हें । हां थोडी लास्ट मे फ़टका मार दे पोलिश कर दे.....देख ऐसा कुछ लिखियो...., हास्पिटल के बाहर निकलते ही आसमान में तारों की चमक बढ़ जाती है, एक सितारा फ़ट सा पड़ता है उसके ऊपर और छिटक कर हर कहीं सितारे ही सितारे, नया साल आ गया....आसमान मे आतिशबाजियॊं से लिखा, हास्पिटल के गार्ड से पढ़वाता है, उसे भी जेम्स की तरह पढ़ना कहां आता पर वो जानता है की ये नये साल के आने की खुशी है ।"
"जबरदस्त बे जबरदस्त....तु लिखना शुरु कर दे मेरे भाई ।"
"तू ही लिख भाई, जब लिख जाये पढाईयो एक बार, देखें तो साला, अपना स्क्रिप्ट अपना आईडिया लिखा हुआ कैसा लगता है ।"
अभी तक तो लिखी नहीं सुधीर कि कहानी पर यहां दिल्ली एयरपोर्ट पर अपने एयरक्राफ़्ट का इन्तजार करते हुये लगता है कि क्या कूड़ा कहानी है ? सिम्मी की बात याद आती है, जो इसे सुनने पर पूरे गुस्से मे फ़ट पड़ी थी, "नये साल का मतलब समझने भर के लिये किसी के सुसाइड नोट तक लिखने की जरूरत पड़ गयी वाह रे लेखक, नये साल की कहानी मे ...खैर । और क्या चूतियापा है के कोई ऐसा चोर होगा जो पैसे छोंड़ किसी को हास्पिटल पहुंचायेगा । फ़ालतू आदर्शवाद क्यॊं घुस आता है, बार बार, क्यों नहीं वो कहानी हो जो सच भी हो सकती हो, जो सच होती हो, जो आस पास हुयी हो, सकती हो, मसाला इतना जरूरी है क्या, भागना क्यों चाहते हो... सच्चाई से । लिखना मुझे नहीं आता पर कला या साहित्य रचना भगोड़ा बनने का नाम तो नहीं होता होगा ।"
सिम्मी का लेक्चर एक तरफ़ और अपनी कहानी लिखने की तड़प दुसरी तरफ़, और कहना ही क्या की, पलड़ा इसी का भारी । सो कहानी की खोज अब भी जारी है ।
पर फ़िर सोंचता हूं, इस दिल्ली एयरपोर्ट पर कल कैंसल हो चुकी और अब लेटातिलेट फ़्लाइटस का इंतजार करते टूरिस्टस के बीच नयन के कहे मुताबिक जगहों पर नजर चिपकाये रहने मे, उस सर पर गुलदान लिये, जाड़े मे भी ना जड़ाने वाली लड़्की के छोटे कपड़ों, तेज-मस्त हंसी मे, उस बच्चे के "ईड़ियट" होने मे, बूढे और बुढ़िया का झोले का बोझ साथ मिलकर उठाने मे, शायद उस Air hostess की काफ़ी दूरी तक ऊपर की ओर खुली हुई स्कर्ट मे, चिड़िया उड़ खेलते बच्चों की हंसी मे और हां, हर बात-बेबात नयी नवेली की मेरे साथ अनजानी सी ही सही पर साथ की हंसी मे कहानी है । कहानी है, कहां नहीं । हां, इन सबके होते भी नये साल की कहानी मे किसी को लकवा मरवाने, किसी की हड्डी तुड़वाने, किसी को जान से मार देने या सुसाइड नोट पढ़कर ही जेम्स की इन्सानियत जगाने की जरुरत है क्या.... ?

Tuesday, January 16, 2007

प्रेम पगे छंद




बहुत दिन हुये छुप छुप जीते

पल पल तेरा मन ही मन अलिंगन करते,

मानस कानन में भॊंरा बन

मैं भी कुछ मणिबन्ध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।



गति, यति, लय, और शब्द शक्ति से

आग्नि शिखा से तेरे तन पर,

धैर्य्य भुलाते भावों के संग

मंथर मतवाले बंध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।



अस्त व्यस्त सी राह भटकती

हर्ष विकम्पित अंगुलियों से,

तेरी कोमल कन्चन कटि पर

ईक्क्षा के अनुबंध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।



भस्म लगाये होश भुलाये

विष पीने को तत्पर शिव सा,

रक्तिम लालायित अधरों पर

अनियन्त्रित सम्बन्ध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।

Monday, January 15, 2007

मटमैला बचपन




सर्दी की रात
एक पतली शर्ट
साहबों की मार और गालियां
उनकी जूठन के साथ खा
नंगे पांव
आंखें मिचमिचा
दांत किटकिटा
नाक पोंछ
शायद यही कह रहा था
मैं हूं तुम्हारे
महान देश का भविष्य

आओ और मुझे
छाप दो
साल का श्रेष्ठ चित्र बनाकर
लिखो मुझपर
भावुक कविता
फ़िर छोंड़ दो
जी जी कर मरने के लिये

...रवीन्द्र

मटमैला बचपन




सर्दी की रात
एक पतली शर्ट
साहबों की मार और गालियां
उनकी जूठन के साथ खा
नंगे पांव
आंखें मिचमिचा
दांत किटकिटा
नाक पोंछ
शायद यही कह रहा था
मैं हूं तुम्हारे
महान देश का भविष्य

आओ और मुझे
छाप दो
साल का श्रेष्ठ चित्र बनाकर
लिखो मुझपर
भावुक कविता
फ़िर छोंड़ दो
जी जी कर मरने के लिये

...रवीन्द्र

Thursday, January 11, 2007

एक कहानी होना चाहती है ।


भीड़ से दूर बैठना और देखना कि लोग कर क्या रहे हैं, अच्छा तो सभी को लगता ही होगा। हाँ कई लोग अपने मे खोये खोये भी देखे हैं, भीड़ मे रह कर भी, भीड़ से अलग । तो खैर बात सिर्फ़ इतनी की भीड़ काफ़ी थी, अलग ही बैठा सबसे, दीवाल से लग कर एक जगह खाली दिखी सो वहीं जम गये। फ़िर उद्धेश्य भी ससुर कुछ भीड़ टापने का हो तो कहने ही क्या । कह्ते हैं कुवारों के जीवन मे कोई खास समस्या नही रहती सो खुराफ़ात कुछ ज्यादा सूझती है । इन दिनो एक कातिल, जान खाऊ खुराफ़ात अपने ऊपर भी चढी हुयी है, कहानी लिखी जाये । पर कैसे और क्या से मुश्किल है, जाने कैसे वो भवानी दादा को कदम कदम पर मिलने वाले चौराहे कहां मर गये, यहां तो नहीं दिख रही एक भी राह ।
अजीब है कहानी लिख पाना भी, कैसे भई लोग दूसरों को जिनकी जैसी जिन्दगी कभी जी नहीं, जिनको बस किनारे खड़े होकर परखा, जाना, बस देख कर साथ रह कर कैसे लिख देते हैं लोग । लिखना ही क्यों हो, डाक्टर ने बताया है क्या? कभी कभी तो लगता है कमीनापन है। कविता तो ठीक, बहुत सेफ़ तरीका है, रैंप पर आओ कम से कम कपडों मे, मटक कर उधर से इधर, फ़िर इधर से उधर, फ़ैसन है फ़ैसन, हम कहानी लिखें तो नंगे खडे हैं सड़क पर, जो आया दो तीन ढेले मार गया, हट्ट । मेहनत का मोल कहाँ, मोल है पत्थर की चमक का, पथरीली चमक ससुरी । कहानियां आती कहां से होंगी, सपने मे? धत ! यहीं आस पास देख, सुन, समझ, पढ़, सूंघ, और हाँ चख कर । अपने आस-पास और उससे कहीं ज्यादा खुद अपने को सूंघना हर कहीं गिद्ध की तरह निगाहें जमाये, बैठे रहना कमीनापन नहीं तो क्या है । "नहीं ऐसा भी नही, कल्पना भी कोई चीज है, क्या जरूरी है मुझे आम की कहानी लिखनी है तो पेड़ पर लटकना भी पड़े,और तभी आम होना समझा जा सके । कहीं कुछ देखा और फ़िर कभी किसी समय किसी बात किसी एकदम काल्पनिक घटना कह सकने के लिये उसका यूज कर लिया तो बुरायी कहां है", एक दोस्त की बात याद आती है, "सबके पास लफ़्ज नहीं होते मियां, बयां है गर तो, अन्दाज-ए-बयां कहां से लायें, वो कैसे कहें जो कहना है मेरी जान । लेखक शब्द देता है, अबोलों के मौन का मुखर बनता है, तुम समझ सकते हो कि कुछ हुआ तो उसका मतलब क्या है, हो सकता है वैसा सब नहीं समझ पाये, so it's your responcibility, to let others know whatever you think, और कुच लिखने के बाद हल्का सा नहीं पाते अपने आपको, कि जैसे बहुत कुछ लदा हुआ सा था अब उतर गया"। हां इस बात मे थोड़ा दम लगता है, अपनी कुछ लिख कर बड़ाई बटोरने, वाह वाही चाटने, को ढक सके ऐसा एक दमदार गहरा पर्दा । अगर बस स्वान्त: सुखाय, वही हल्का महसूस होना, के जैसे लोगों को कह्स्ते सुना होगा, "भैया, हम तो अपने मन कि खुसी को लिखते हैं, लिखते कहां कविता हो ही जाती है ससुरी।" ऐसा उद्धेश्य रहा होता लिखने का तो भाई लोग चार पन्ने काले करते ही छपवाने की होड़ मे ना पड़ जाते, कवी सम्मेलनों मे सुनने वालों से ज्यादा सुना देने वालों की भीड़( उत्सुक्ता,ललक ) न होती ।
"सुरसरि सम सब कंह हित होई", टाइप कुछ भी लिख पाने का कोई भरोसा किसी को होता होगा क्या? पर हां लिख कर हल्का सा तो लगता है, पर पढने का मजा भी अलग ही है । कई बार अनमने शुरु की गयी किताबें भी धर दबोचती हैं और हां ऐसा ही नही कि कुछ अपने आस पास का लिखा मिले तभी ऐसा हो । पर फ़िर भी लेखक कम कमीने नही लगते, किसी दिन पात्र जिन्दा हो जायें तो चुन चुन कर बद्ला लें । असल जिन्दगी के लोग डर डर कर रहते होंगे लेखकों से कि ना जाने ससुर कब सनक जाये और साला लिख मारे हमारे उपर ही कुछ अन्ट सन्ट, नंगे की खुद इज्जत क्या, नंगा खुदा से चंगा । बाणभट्ट को तो द्विवेदी जी ने बाकायादे चेता दिया उपंयास की बस शुरुआत मे ही, कि बेटा १०० दिन बाद मर जाओगे अगर किसी जिन्दा इंसान की कहानी कविता कुछ भी लिखोगे......ऐसा वैसा लिखा तो वो इन्सान ही नहीं जीने देगा । वैसे हिन्दी मे लिख दो पढ़ते ही बहुत कम लोग हैं, सिकोरिटी है अभी इसमे काफ़ी, अरे हिन्दी साहित्य है कोई हिन्दी पिक्चर थोड़े ही है।
मेरे आस पास क्या हो रहा है, है क्या कोई कहानी ? अंग्रेजी मे हिन्दी बोलता एयरपोर्ट बकबकिया सी आवाज आ रही है,"spice jet आपको ये सूचित करते हैं कि डेल्ही से हैडराबाद जाने वाली उडान संख्या SG-221, ४ घन्टे विलम्ब से जाएगी, अब ये flight भारतीये समयनुसार ८ बजे जाएगी, आप्को हुयी असुविधा के लिये हमें खेद है, धन्यवाद । Spice jet announces delay in it's flight SG-221 from delhi to hyderabad by 4 hours, now this will go at 20 hundered hours that is 8PM by indian time, we regret any inconvenience caused. " एनी इन्कंवीनिएस, स्याले....मैं नही बगल मे बैठे टोपी वाले अंकल बोलते हैं ।
"सुन नयन आज नये साल पर एक बात बताता हूं, ध्यान से सुनियो, फ़िर कोई बताये ना बताये। यार भगवान जब भी देता है, पूरा फ़ाड़ देता है, छप्पर।"
"बावला हो गिया है क्या, क्या बक रिया है?"
"अरे यार कल की कैंसिल हो गयी थी, आज साली ४ घन्टे लेट है, इसकी मां..."
"हे हे हे हे हे, हा हा हा हा.. ए हे हे हे हे, लग गयी साले तेरी तो", फोन पर भी नयन फ़ूट फ़ूट कर हंसता है, "पर कोई नहीं टूरिस्ट टापो, गोवा जाने वाली गोवने नहीं हैं क्या वहां, आप तो साब लेखक हो रिये हो आज कल, लिख मारो कोई कहानी, किसी गोवन के नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहे म्रदुल अधखुले अंग पर?"
"नये साल पर मैं ही मिला हूं तेरा जोय शंकर पाठ पधने के लिये, अच्छा रखता हूं साले, रोमिंग पर हूं ।"
"चल कट ले ।"
मैं गम्भीर नागरिक हूं, उससे कहीं ज्यादा, गंभीर लेखक सो अपने आस पास कहानियों की खोज करता हूं । आस पास कुछ फ़ुटकर कहानियां थोक में बिखरी हुयी दिख रही हैं, एक एक कर बताता चलता हूं ।

कहानी जाड़ों मे भी न जड़ाने वाली हसीना की

(शेष आगे.....)

Tuesday, January 9, 2007

भस्मासुर की मौत



नदी भावनाओं की उफ़नती
शब्दों के किनारों को तोड़ती
गति यति अलंकार शैली और छंदों के
घाट, पेड़, झोपड़े और बजार कुचलती
अंदर तक घुस आयी है
मेरे अपने आंगन तक
सब कुछ बह गया बाढ़ में मेरा
और इस सब कुछ के खो जाने की खुशी
नंगे आसमान के नीचे
सर पर हाथ रख
भस्मासुर बन नाच रहा हूं
विश्वमोहिनी के साथ
मस्त, ताक धिन, ताक धिन...
कहीं गुम होना
प्रथम मिलन के घून्घट सा है
अबूझ, अंजान, उलझा, आकर्षण
भस्मासुर होने का दंड क्या है
खुद को खोना
और ये सोंच कर
इस बाढ़ में मैं छत पर
बाढ़ से बचा बैठा नहीं रह पाता
कूद पड़ता हूं नदी के तांडव में
बेशक मरने के लिये
भस्मासुर की मौत की खुशी में
कहीं दूर ढोलक की थापों पर
एक कविता जन्म लेती है.

Thursday, January 4, 2007

पान्चाली


छोटा कस्बा, दोपहर का समय, चौराहे पर फ़िर भी सन्नाटा नहीं था, एक विशेष कारण से। सिगरेट के धुयें से घिरे कुछ लड़के दुनिया और भाग्य की चाशनी बना कर चाट रहे थे। यहां खड़े होने का कोई खास कारण नहीं था,बस ये कि गर्ल्स काँलेज में छुट्टी बस होने ही वाली थी। तो ऐसे समय पर साली धूप भी क्या चीज है ।

धूप से थकी घड़ी ने ३:३० बजाये और उसी के जैसे राहों पर बिछे मुरझाये फूल खिलने और,काँलेज गेट के खुलने का इन्तजार करने लगे। जिन्हे आदत नही वो सर झुकाये, और बाकी खिलखिलाती लड़कियों की प्रदर्शनी सड़क पर चलने लगी। एक औटो ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया, कुछ खास ही था उसमें,शायद कोई लड़की अपना दुपट्टा सम्भालना भूलकर सामान सम्भालने में लगी थी, दुपट्टा बाहर फ़हरा रहा था।

सड़क पर खड़े भाईयों से देखा ना गया और वो पतंग के साथ-साथ चर्खी की भी मांग करने लगे, मांगें पूरी न होती दिखिं, या लगा अनसुनी हो गयीं, तो पास जाकर बताने का लोभ सम्वरण ना कर सके। एक महारथी की मोटरसाईकिल घरघरा उठी, और ये जा वो जा। लड़की अब भी बेखबर थी, शायद इसी लिये दुपट्टा उसी शान से फ़हरा रहा था।

सारथी ने रथी को इशारे से रणनीति समझायी, आंखों के कुछ इशारे और ठहाके गूंज उठे, अर्जुन ने कृश्ण से आग्रह किया," मधुसूदन रथ की स्पीड बढायें, मैं आज कुछ कर ही दिखाऊंगा"..
मधुसूदन उवाच,"ये ले साले ,तु भी क्या याद करेगा, कर ले सारे अरमान पूरे।

रास रचईया ने एक्सीलेटर पर पकड़ मजबूत की और रथ औटो के साथ चल रहा था। हां इस बीच सारथी और रथी दोनों ने दो दो हाथ अपने अपने केशों के बीच भी फ़िराये थे, और रथी ने तो १ या २ बटन भी खोल दिये थे, कहने कि अवश्यक्ता नहिं है फ़िर भी निःसन्देह शर्ट के ही।
रथ के औटो के साथ आते ही भामापति,बन गये दुर्योधन और रथी को अर्जुन से दुश्शासन बनाते हुये आदेश दिया,"मैदान साफ़ है ,खीन्च बे खीन्च"।

दुश्शासन कलयुगी था कदाचित भयभीत भी, औटो में बैठी पन्चाली की ओर बिना देखे, बस दुपट्टे कि ओर इशारा करते हुये बोलता भया,"अबे पूछ तो ले, इसके पीछे क्या क्या छुपाये रहती है"।

लड़की, अरे वही जो कि पान्चाली थी और उड़ते दुपट्टे के पीछे जाने क्या क्या छुपाये रहती थी, अब भी, ना चीर बढ़ाने वाले श्री कृश्ण को याद कर रही थी, ना भीष्म, द्रोणाचार्य और अपने पतियों को गालियों से नहला रही थी। ससुरी वो भी कलयुगी जो ठहरी, क्या पता खुद ही उछल कर बैठ ही जाये दुर्योधन की जन्घा पर!!
औटो वाला दुश्शासन और उसके अग्रज का(जो कलयुग में सिगरेटिये मित्र बन कर अवतरित हुये थे), अभिप्राय समझ गया था, और एक्सीलेटर बढ़ाने पर बस पकड़ मजबूत करने ही जा रहा था, पर हस्तिनापुर युवराज से कौन पंगा ले, उसने देखा ही नहीं।

औटो में पान्चाली अकेली नहीं सत्यभामा और रुक्मिनी भी थीं, लेकिन पन्चाली को देखते ही दुर्योधन ,अपने असली रूप में आ गया, डाईरेक्टर कि आवाज गून्ज रही थी, "कट कट", क्योंकि डाईलाग था,"हमारे लिये बाहर उड़ा रखा है क्या?", पर दुर्योधन ने "हमारे लिये" के बाद कहा "मम्मी आप"...




- रवीन्द्र नाथ भारतीय