Monday, May 14, 2007

थोड़ा आसमान उसका अपना - 1

सुमित,हमेशा की तरह, मैं खुश ही हूँ, तुम कैसे हो? कितने दिन हो गए तुमसे मिले। तुम्हारा क्या है, तुम तो अब भी वैसे ही कहते होगे सबसे बड़ी शान के साथ, "कविता, मैं किसी को याद नहीं रख सकता! तुम तो एकदम याद नहीं आतीं, मैं तो हूँ ही ऐसा।" पर मैं जानती हूँ तुम कैसे हो। ऐसा है ज़्यादा हाँकने की कोशिश मत किया करो। जैसे हो वैसे ही रहो तो अच्छा। अभी तो तुमने ऐसी दीवार उठा दी है कि तुमसे मिलना, पहले के जैसा ही हो चला है, पहले कम से कम एक आशा तो रहती थी कि तुम दिखोगे, अब तो तुमने वो भी गिरा ही दी है।
क्यों किया तुमने ऐसा, क्या और कोई रास्ता नहीं था, जिस तरह मैं चल रही हूँ, तुम क्यों नही चल पाए। "क्या जो बीत गई सो बात गई" का पाठ स्कूल में बस मैंने पढ़ा था, सुनाते तो बहुत शान से थे तुम, जैसे सब समझ रहे हो, "अंबर में एक सितारा था माना वो बेहद प्यारा था", कहते-कहते कैसे तुम धीरे से देखते थे आँखों से हँस देते थे, मुझे लगता मैं हरी दूब पर सुबह सुबह नंगे पाँव चल रही हूँ, ताज़ी ठंडी हवा के बीच, ठंड से लिपटी, खुशबू मे डूबी, फूलों से भरे गुलदान-सी शरम से लकदक!! अब कहो कुछ, अब तो अच्छा लिखने लगी हूँ ना. . .

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