Sunday, December 10, 2006

अनगढ़ कविता


अनगढ़ कविता

कुछ अनगढ़ कवितायें हैं।
जिन्हे अगर जोड़ा जाता
लिख डालने वाले
कलाकार कि तरह जिन्हे
हां अगर रुक रुक कर आहिस्ता- आहिस्ता,
हौले-हौले, तराशते,
तो अच्छी लग सकती थीं
लिखने वाले के अलावा किसी और को भी।
हो सकता है कला का,
नायाब नमूना बन जातीं वो,
या किसी म्युजियम किसी लाईबरेरी किसी प्रदर्शनी में
मंचों के रास्ते लोगों के सर चढ़ जातीं ।

लेकिन वो कवितायें अनगढ़ थीं,
गाँव की पगडंडी की तरह।
खंडहर में बाकी बची,
एक टूटी खिड़की की तरह,
जंग लगी, दीमक लगी लकड़ी।
कच्चा घड़ा नही, अरे नहीं,
वो तो बहुत चिकना होता है, रूखा मिट्टी का ढेला।

जिनको तुम पढ़ोगे तो नकार दोगे एक सिरे से,
और लिखने वाले ने भी ये सोच कर कहां लिखा,
कि तुम्हे अच्छी लगे।
या कोई देखे और कहे भई वाह।
कलम उठी, मन में बसी टीस,
कागज पर बेलौस बेढ़ंगे तरीके से,
दे मारी थी बस।
कुछ भीतर से बाहर आने को कुलबुला रहा था,
लावा सा, उछल कर छलछला पड़ा, एकदम बेतरतीब।

मजदूर के फ़ावड़े से काटी गयी,
किसान के हल से खोदी गयी,
ज़मीन,
चिकनी हो सकती है ??
हो सकती है कलाकार की कला से सजी,
सुन्दर नयिका कि कमर सी वर्तुल, कोमल,
जिससे छूते भी झिझक लगे,
मादक, मोहक, पथरीली नायिका,
कहीं झिड़क ही ना दे,
दूर हटो गन्दे हाथ!!

अनगढ़ कविता,
तथागत के लिये खीर लायी सुजाता,
नयिका, जिसका सौन्दर्य, जिसकी कला,
किसी सुनहरे महल की बपौती नहीं,
राह की फ़कीर की एक झलक की भूखी है।
मुक्त, शुद्ध, हर क्षण नवीन,
धरती पर लोटती दोपहर,
हाँ धूप की तरह,
अपनी पवित्रता से सभी की आँखों में चुभती।

अनगढ़ कविता सच्ची है,
जैसे कोई छोटा बच्चा,
मुह फ़ुला कर एक पल बैठा,
फ़िर हंस कर खेलने लगता है ना वैसे।
उसे क्या पता रोते समय,
जाने क्या क्या भी याद किया जाता है,
सन्दर्भ और प्रसंग ढ़ूंढ़ा जाता है।
अलंकारों की चाशनी बनायी जाती है,
तुक का पतीला , सुन्दर सुडौल शब्दों के चूल्हे पर,
जतन से चढ़ाया जाता है,
और तब रोने के बारे में सोंचा जाता है।

अनगढ़ कवितायें रोती हैं,
क्योंकी रोने के सिवा उस समय कुछ सोच नहीं पातीं,
हंसती भी हैं, कारण वही,
शर्माती भी हैं,
पर जरुरी नहीं कोई घूंघट हो ही,
नंगी शरम देखी है कभी??

स्वार्थी अनगढ़ कविता,
रोती, हंसती, शर्माती,
फ़ुदक-फ़ुदक बस अपने लिये गाती है,
अमरबेल बन जीती है।

4 comments:

Anonymous said...

kaun kehta hai ki ye angadh kavita hai...
agar ye angadh hai to mujhe baaki kavitayen achchi nahi lagti chahe kaisi bhi hon.
meri shubh-kaamanayen

दीपक । Deepak said...

सुन्दर कविता|

भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति...
आपको बहुत-बहुत बधाई|
कविता का संसार इतना विशद और व्यापक है, कि अनगढे या गढे होने का अर्थ नहीं| कविता अपनी समस्त सुन्दरता के साथ सच्चे रूप में आती हो , तो इससे फर्क नहीं पडता कि वह एक कला के नायाब नमूने के रूप में याद रखी जाती या नहीं|

अज्ञेय की पंक्तियाँ हैं -

तू काव्यः
सदा-वेष्टित यथार्थ
चिर-तनित, भारहीन,
गुरू, अव्यय।
तू छलता है
पर हर छल में
तू और विशद, अभ्रान्त
अनूठा होता जाता है।

आगामी लेखन के लिए शुभकामनाएँ|

योगेश समदर्शी said...

angadh kavita...
vaastav main jaise vichaar ki bhrun hatya ho...?
kavita ke bhaav sunder hai. badhai.


aapne meri kavita maa par jo tippni ki main usse bhi parbhavit huaa. yeh kavita vastav main ant main na jane kyon ekdam bhatak gai. jab main blog me post karne ke liye ise type kar raha tha tab mujhe bhi yeh laga. par yeh meri 1996 main likhi kavita hai. maine socha yeh us vakt ki koi kami ya majboori hai. ise ab sudhaaroonga to kavita ka sara sandarbh dubara se uthana hoga. or us nai sandarbh par isi vishay main ek nai kavta or honi hai. jab ho jaaigi to aapko soochit karoonga. .. bhaai ji orkut main bhi aap hai kya. yadi haan to vahan milte hai. ...
dhanyavaad.

Dr. Seema Kumar said...

"और लिखने वाले ने भी ये सोच कर कहां लिखा,
कि तुम्हे अच्छी लगे।
या कोई देखे और कहे भई वाह।
कलम उठी, मन में बसी टीस,
कागज पर बेलौस बेढ़ंगे तरीके से,
दे मारी थी बस।
कुछ भीतर से बाहर आने को कुलबुला रहा था,
लावा सा, उछल कर छलछला पड़ा, एकदम बेतरतीब।"

मेरा भी ऐसा ही विचार है .. चाहे कोई उसे कविता कहे या न कहे !