Wednesday, December 13, 2006
अंश
तुम्हे देखा नहीं,सुना है, महसूस किया है। हजारों मील दूर लेटे तुम पतली सी आवाज़ में धीरे से ,बस ऎं-ऎं सा करते हो, कोई अनजाना सा, किसी अबूझ पहेली सा कोई मन्त्र फ़ूंकते हो, मैं नासमझ कुछ समझ नहीं पाता। पर जाने क्यों मैं कहाँ हूं, क्या हूं, कब तक हूं, सब भूल जाता हुं। सबके सामने खड़े होकर, लम्बी बातें बना सकता हूं पर तुम जो सामने भी नहीं, और पता है की कुछ बोल भी नही पाओगे, चुप कैसे कर देते हो?
तुम चुप से बस हल्की सी आं-आं करते हो, लगता है एकाएक कोई झरना फ़ूटा हो बस देखते देखते, अभी बस एक पल पहले था तो बस पथरीला सन्नाटा था। गर्मी की दोपहर और हल्की हल्की फ़ुहारें पंख पसारे चली आयी हों बस एक पल में, ठंडक..... भीतर बाहर हर कहीं । मन का भ्रम होगा पर तुम अपनी भाषा में कुछ कहते हो, मिलो तो,समझने की कोशिश करुंगा, समझने दोगे ना?
भले ही कभी देखा न हो, पर सुन-सुन कर देखी है तुम्हारी आधी बन्द, अधी खुली सी आँखें, छोटी सी नाक, कान, हाथ, पाँव नन्हे-नन्हे से। सब कुछ इतना मासूम की डर लगे फोन पर भी। मासूमियत बेहद डरावनी भी हो सकती है...
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2 comments:
badhaai ho !
उपस्थित जी!
अगर आपने इस लेख को छोटी-छोटी पंक्तियों में तोड़ दिया होता तो आधुनिक कविता बन गयी होता।
कुछ मायनों में इसमें कविता से भी अधिक गहरे भाव हैं।
अति सुन्दर।
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