वह कौन है जो विश्व को तकली सा नचाता
माँ बन के जन्म देता पिता बन के पालता
बाल बढ़ाये कपड़े गन्दे
होंठों पर मुस्कान सजाये
दुनिया के कोरे कागज पर
अपनी जादू की कूंची ले
सतरंगी जीवन रचता जाता
कान्हा बन कोरी राधा का आंचल छू जाता
होंठों पर खुशबू, आंखों में सपनो सा काजल भर जाता
जन्म नहीं पालन भी जग का
कभी खेत में फ़सलें बनकर
शीतल मंद हवाओं में भी वह
सारी गति यति गीतों में वह
है कौन वो जो अंधियारों में दीपक बन आता
तुम मे है रचा बसा हां सच बस तुम सा
बाहर भी बस, यहीं सब कहीं, मुझमे उसमें
रक्तिम नयनों से कभी विश्व पर ज्वलामुखी सजाता
जीवन का ही नही मृत्यु का भी नृत्य दिखाता
है कौन वो जो विश्व को तकली सा नचाता ?
माँ बन के जन्म देता पिता बन के पालता
बाल बढ़ाये कपड़े गन्दे
होंठों पर मुस्कान सजाये
दुनिया के कोरे कागज पर
अपनी जादू की कूंची ले
सतरंगी जीवन रचता जाता
कान्हा बन कोरी राधा का आंचल छू जाता
होंठों पर खुशबू, आंखों में सपनो सा काजल भर जाता
जन्म नहीं पालन भी जग का
कभी खेत में फ़सलें बनकर
शीतल मंद हवाओं में भी वह
सारी गति यति गीतों में वह
है कौन वो जो अंधियारों में दीपक बन आता
तुम मे है रचा बसा हां सच बस तुम सा
बाहर भी बस, यहीं सब कहीं, मुझमे उसमें
रक्तिम नयनों से कभी विश्व पर ज्वलामुखी सजाता
जीवन का ही नही मृत्यु का भी नृत्य दिखाता
है कौन वो जो विश्व को तकली सा नचाता ?
12 comments:
इस महीने की पहली रचना लिखने के लिये बधाई!
कोई जादूगर है....थोड़ा जादू मैने भी सीखा है...
नन्हे बच्चों की आँखों में रोज़ ठहरता है.....
आँखे खोलो तो गायब....!!
बन्द करो तो आत्मा में दिखता है....
वह प्रकृति है
प्रवीण मिश्र
वही है वो, जादूगर जो सब कुछ बना कर तमाशा देखता है।
अति सुंदर.. विध्वन्स और सृजन .. प्रेम और विरह.. यही तो उसके खेल हैं.. उसकी बातें वो ही जाने..वो एक असीम सत्य व्याप्त सारे जगत हम तो बस इतना जाने..
कुछ पंक्तियां याद आ गईं
हरी हरी वसुन्धरा पे नीला नीलाये गगन
कि जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन..........
ये किसने फूल फूल पे किया श्रन्गार है
ये कौन चित्रकार है ?
है कोई क्या ? या प्रकृति कहें .. प्रकृति का नियम कहें ?
वैसे अभिव्यक्ति अच्छी लगी ।
रिपुदमन पचौरी said...
तेरे मन के अंतर में,
जो रहा सदा अविचल सा
जिसके स्मरण मात्र से,
यह देह हुआ है जल सा
जिसकी कीर्ती है भुवन में,
हर मनु-पुत्र के मन में
जिसके मधु स्पर्श से
तन हो जाता है अनल सा
वह प्रेम ही इक मात्र मार्ग है
बस शुन्य को पा जाने का
वह प्रेम सदा जीता करता जो,
अपरिचित को बैरी को
वह प्रेम सदा जीता करता जो,
द्वविधा को संकट को
वह प्रेम सदा जीता करता है,
हर अविनाशी के मन को
वह प्रेम ही एक मार्ग शेष है
अब स्वंय को पा जाने का
रिपुदमन पचौरी
रवीन्द्र जी पहली बार आपकी कवितायें पढी | बहुत अच्छा लिखते हैं आप | यह कविता भी बहुत सशक्त है | मेरी बधाई स्वीकार करें और इसी तरह लिखते रहें |
साहित्यिक समीक्षा जार्गन का इस्तेमाल किया जाए तो कहना होगा कि रहस्यवादी हैं आपकी रचनाएं
स्वागत
रचना बहुत अच्छी लगी । शायद प्रकृति है या शायद कुछ भी नहीं कोई भी नहीं । Perhaps everything happens just in a random manner for no rhyme or reason. Or perhaps, it is a power composed of all the little powers which r individually there in each and every living thing.
The poem is beautiful! :)
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
मै मासीजीवि जी से बिल्कुल सहमत हू
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