"कुरु कुरु स्वाहा" का एक एक शब्द चबा-चबा, चमत्कृत होते, लेट-लेट कर उठ-उठ बैठते, पढने पर एक लेखक से पहली मुलाकात हुयी, जिसके परिचय मे हर कहीं अमृतलाल नागर और अज्ञेय को उसका गुरु कहा जाता है. यहां याद अता है "नेताजी कहिन", का दूसरा पृष्ठ, लिखा हुआ था, "यह रचना मेरे गुरु अमृतलाल नागर को समर्पित, जिनसे मैंने यह जाना कि भाषा "सुन कर" सीखी जाती है". मनोहर श्याम जोशी से परिचय एक मित्र की भेजी कुरु कुरु स्वाहा ने कराया (खुद नहीं खरीदी, अभी भी हिन्दी के नये(अनजाने) लेखकों की पुस्तकें खरीदना रिस्की ही लगता है), इसके पहले उनका नाम हंस मे "क्याप" को सहित्य एकेडमी पुरस्कार पाने के लिये पढ़ा था.
"कुरु कुरु स्वाहा" के लेखक परिचय मे उनके "अप्पू राजा" और "हम लोग" के स्क्रिप्ट राइटर (पटकथा लेखक) होने का पता चला. उपन्यास पढ़ चुकने के बाद लगा कि ये सब क्यों पता चला. पुर्वाग्रह मुक्त होकर किसी भी रचना को पढ़ने का मजा गंवा दिया मैने, रचनात्मक पाठन कि यह एक बड़ी हार रहती है, ऐसा सुना है. पर एक विश्वास भी पनपा, यह लेखक, यह लेखनी किसी पूर्व परिचय, किसी भी सीमा, किसी भाषा विशेष के मोहताज नहीं. पाठक को बांध कर, दबोच कर रखने के लिये क्या चाहिये, सीखना है तो जोशी जी से मिलिये. हजारों रुपयों की किताबें खरीद सकने कि औकात रखने वाले या जेब खाली पुस्तक एवं पुस्तकालय प्रेमी बुद्धिजीवी, या सड़कछाप, रसीले तथाकथित जासूसी उपन्यास पढ़ने वाले, कैसे भी पाठक हों जोशी जी के पास सबके लिये पर्याप्त मसाला है.
तथ्य, कथानक, कथा शैली और प्रसंगानुकूल तथ्यों और उध्धरणों की ऐसी उठा पटक, कथा और पात्रों का ऐसा रहस्यमयी ताना बाना कि कभी ये आगे कभी वो, भाषा (बोली कहूं तो और भी बेहतर) की ऐसी समझ, दुनिया जहान की, जाने किस किस विषय(दोनो अर्थों मे) का ऐसा गूढ ज्ञान कि बस सर झुकाने का मन करे, "कहां से बाबा, कहां से, कैसे बाबा इतना कैसे??" मनोहर श्याम जोशी और कुरु कुरु स्वाहा की लम्बी बातें फ़िर कभी, अभी बात करते हैं, "हमज़ाद" की कम मेरे हमज़ाद पढ़ने, पढ़ पाने और पढ़ कर क्या कुछ समझ पाने की यात्रा की.
मेर गांव,मेरा घर उत्तर प्रदेश के उन्नाव शहर(शहर?? हां और क्या)मे है. उन्नाव आज भी, दो महानगरों, कानपुर और लखनऊ के बीच होने का आनन्द और उपेक्षा साथ साथ भुगत रहा है. अब ऐसे शहर मे सड़कों पर मारे मारे घूमते हुये अगर कहीं(जानने वालों के लिये निराला प्रेक्षाग्रह के मैदान में) टेन्ट लगे दिखें और द्वार पर बैनर लगा हो "तृतीय उन्नाव पुस्तक मेला", तो आश्चर्य ही होगा. दिन मे पिता जी ने फोन पर गांव से बताया था कि निराला प्रेक्षाग्रह में मुशायरा है, उन्हे भी मेले के बारे मे कोइ जानकारी नहीं. खैर साहित्यिक सन्ध्या मे मुशायरा भी था और मुख्य आकर्षण ये कि "काफ़ी माल शायरा आयी हैं". मुझे उन सबके दुर्भाग्यवश दर्शन तो नसीब नहीं हुये पर अगले दिन का पेपर ये बतलाता भया कि मुशायरे से ज्यादा मनोरंजक जिलाधिकारी महोदया और उनके जिलधिकारी पतिदेव का उनकी विवाह वर्षगांठ पर वहीं मन्च पर किया गया नॄत्य था. पुस्तक मेले की सूनी गलियां और दुखी प्रकाशक अगले दिन देखने को मिले, यह कहानी भी विस्तार से फ़िर किसी दिन.
हां, पुस्तक मेले की कहानी से इतना चुराता हूं कि, कहने पर कि मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास चाहिये, क्योंकि सामने दिख नहीं रहे थे किसी भी प्रकाशन के स्टाल पर, जवाब मिला कि लाये तो थे पर शायद प्रतियां बिक चुकी हैं. राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर एक बंधु ने अपने पुस्तक भन्डार के जाने किस हिस्से मे हाथ घुसाया और निकालीं हमज़ाद, हरिया हर्कुलिस की हैरानी, क्याप, कसप, नेता जी कहिन और कौन हुं मैं. मुझे जितनी भी खुशी हुयी इन पुस्तकों को देख कर उसमे कुरु कुरु स्वाहा पढ कर जोशी जी के लिये नत मस्तक होना, हंस, कथादेश, और वागर्थ आदि पत्रिकाओं में उनके इस जहां से कूच करने पर लिखे गये लेखों का और किसी लेखिका के द्वारा उन पर लिखे संस्मरण के एक वाक्य का (याद नहीं कहां पढ़ा) पूरा योगदान था. वाक्य है, "उनका लिखा एक एक शब्द मैं किसी भुख्खड़ की तरह पढ़ा करती थी".
"हमज़ाद कहानी है उस कमीनगी की जो अपने ठोस आत्मविश्वास के बल पर सबसे पहली चोट हमारे उन विभ्रमों पर करती है जो हम अपने 'अबोध आशावाद' के चलते अपने इर्द-गिर्द पाले रखते हैं. इसे पढ़ते हुये आप अचानक असहाय महसूस करेंगे और एक रुहानी शैथिल्य आपको घेर लेगा; आप पायेंगे कि आपका समय वास्तव में उससे कहीं घटिया, क्रूर और लिजलिजा है जितना आप आज तक अफ़वाहों और अख्बारों के माध्यम से जानते आये हैं. बेशक यह कथा उम्मीद का अन्त कर देने वाली है, इसका एक भी चरित्र ऐसा नहीं है जो सीख देता हो, 'सुन्दर भविष्य' का कोई सपना बुनता हो; सब अपने-अपने नरक मे इतने गहरे डूबे हुये हैं कि उन्हे अपने अलावा किसी और इकाई का खयाल तक नहीं आता. लेकिन क्या थोड़ी सी झूठी इन्सानियत के साथ यह हम ही नहीं हैं? हमज़ाद के चरित्र इस थोड़ी सी इन्सानियत से भी परे जा चुके हैं जिनके भीतर-बाहर को जोशीजी ने अपने सघन पाठ मे अद्भुत ढंग से रुपायित किया है". खैर है, यह आदत सिर्फ़ किताबों के सिलसिले मे ही है, सबसे पहले पिछवाड़ा देखने की. (अपन भी जब विद्यार्थी समझे जाते थे तब किसी (खास कर बालिका वर्ग) के मन मे झांकने का दरवाज़ा कांपियों और रजिस्टर्स के पिछले पन्ने होते थे. तो भई पिछवाडे लिखी इस बड़ाई ने आग मे घी का काम किया और हमज़ाद का पेपरबैक जो बस १५४ पन्नों का है, मेरे जैसे स्लो रीडर ने भी बस ५-६ घन्टों मे ही निपटा दिया.
हिन्दी के खलनायक आदरणीय राजेन्द्र यादव जी, जिनका उनके बस खलनायक होने और बने रहने की तमाम कोशिशों के कारण, मैं एक बड़ा फ़ैन हूं, ने जोशी जी की मृत्यु पर श्रध्धांजलि स्वरूप सम्पादकीय मे हमजाद के बारे मे लिखते हुये लिखा कि हिन्दी मे सबसे ज्यादा सड़क्छाप अश्लील साहित्य जोशी जी और मैने पढ़ा है. हमज़ाद पढ़ना एक कदम कदम छले जाते और राजेन्द्र यादव जी की बात की सच्चाई के अनुभव से भरी एक नवीन अनुभूती से गुजरने जैसा है.
सुन कर भाषा सीखने वाले जोशी जी इस उपन्यास मे उर्दू लिखते हैं बस उर्दू, दम भर उर्दू और शैली ऐसी कि अगर कोइ हमज़ाद के रूप मे अपना हिन्दी का पहला उपन्यास पढ़े और उसे यह पता चले कि इसी उपन्यास को लिखने वाले लेखक ने हिन्दी साहित्य मे एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है, तो शायद जीवन भर हिन्दी साहित्य के बारे मे उसकी राय निहायत ही घटिया और दोयम दर्जे के साहित्य की रहे. जोशी जी मनोहर श्याम जोशी नहीं तखतराम हैं,"मेड़ा शर्म भी तू, मेड़ा शान भी तू", लिखने वाला, तआस्सुफ़ अहमद्पुरी अपने आपको एक बेहतरीन अफ़्सन: निगार मानता है. इस अफ़्साने को लिख्ने मे बेहद शर्म महसूस करता है, "अगर आप अदीब होते तो समझ सकते थे कि एक अजीम थीम को निहायत ही लग्व और फ़ोह्श अफ़्साने कि शक्ल मे परोस कर मैं कितनी बड़ी कुर्बानी दे रहा हूं. बहरहाल मुझे यह यकीन है कि इस शक्ल मे भी यह चीज पुरसर साबित होगी." टोपनदास खिल्लूराम नारकियानी भले ही हमे अफ़वाहों मे टुकडे-टुकडे मिलते रहे हों, भले ही मां बहन कि गालियों से उनका चरित्र चरितार्थ होता हो पर टी.के. नारकियानी ही अकेले कमीने नही हैं, तखतराम और उनका (या शायद तखतराम का) बेटा जयराम भी कमीनगी मे किसी से कम नहीं. सामने खुल कर की गयी कमीनगी से कहीं घातक मन मे दबे छुपे रहना नहीं क्या? पढ़ कर यह भी समझ मे आ सका की जोशी जी से कयी अलोचकों ने हमजाद के बारे मे ये क्यों कहा था कि, "तुम्हे यह नही लिखना चाहिये था".
"दिल से जो बात निकलती है असर रखती है, पर नहीं, ताकत-ए-पर्वाज़ मगर रखती है".कुरु कुरु स्वाहा पढ़ने के बाद जोशी जी कि जो छवि बनी थी, एक झटके मे चूर चूर हो जाती है. जोशी जी जैसे मुर्तिभन्जक, जो यह खुले आम स्वीकार करते हों कि समाज को दिशा देने और किसी बड़े आदर्श को मन मे रख कर, झूठ और आडम्बर ही रचा जा सकता है, अपनी भी किसी सीमा को पूरी तरह से नकारते चलते हैं.
हमज़ाद का अर्थ है एक बेताल जो हर किसी के जन्मते ही साथ पैदा होता है, बुराई का शरीर एक जिन्न जो ज़िन्दगी भर उस इन्सान का पीछा नही छोंड़ता. यहां टोपनदास खिल्लूराम नारकानी, तखतराम वल्द लाला जी का हमज़ाद है, और मौत तक पीछा नहीं छोंड़ता. दोनो का जन्म एक ही दिन एक ही दिन एक ही मुहल्ले में तो मौत भी एक ही जैसी, "सांस घुटने से, किसी लड़की कि जांघों के बीच". टोपन का यह कहना "अरे तिलक भगवान तेरे जैसे साधू इन्सान बनाता ही इसीलिये है कि वह सताये जाने के लिये आगे आयें और मेरे जैसे वहशी हैवान इसलिये बनाता है कि साधू इन्सानों को सताने से कोई परहेज न करे. साधू और शैतान दोनो न हों दुन्या मे और दोनो एक दुसरे के लिये जबर्दस्त खिंचाव महसूस न करें तो भगवान के अवतार लेने का या अपना कोइ पैगम्बर भेजने का धन्धा ही खत्म हो जाये और दुन्या से धरम का नामो निशां ही मिट जाय.". और तखतराम पुरे अफ़्साने मे हर कहीं अपने को कमजोर ही पाता है. "इसे लाला जी की बात से जोड़ता हुं तो ऐसा लगता है कि इस दुनिया मे टोपन जैसे बुरे इन्सान जुल्म करने के लिये आजाद हैं और मेरे जैसे इन्सान जुल्म करने के लिये कैद हैं." या " कितनी मर्तबे तूने लाला जी को बड़बड़ाते सुना है कि जो ना नहीं कह सकता, वह आजाद नहीं रह सकता, कि हामी ही गुलामी है". कोई आदर्श नही कोईं आशावाद नहीं बस "दुन्या" हां वो दुन्या जहां एक हि इन्सान मे साधू तिलक भी है और उसका हमज़ाद टोपन भी खुद.
अपने अफ़्साने मे बुरायी के प्रतीक टोपन से अपने को अलग कर पाने मे अक्षम साबित करता, हर कहीं अपने आप को अभागा, टोपन का मारा बताने वाला तिलक बने तखतराम की महानता "मुमटी के मम्मे" कांड मे देखने वाली है. कम ही साहित्य पढ़ा है पर आगे कहीं भी ऐसा कुछ पढ़ पाऊंगा सन्देह है. कल्पना का आभास या दार्शनिकता का कोइ पुट नही, एक नंगी सच्चाई, लेखनी का नंगा यथार्थ,लेखक और लेखन का हिला देने वाला सच, जो घ्रणा तो पैदा करता है, साथ हि कुरु कुरु स्वाहा से एक साम्य के साथ क्या क्यों और कैसा, लेखन और लेखन प्रक्रिया से जुड़े सवाल उठाता है साथ ही इन्सानी लेखक मे छुपे जानवर को बेनकाब करता है. "जिस तरह मैना ने मुझे भी बाहों मे कस लिया, जिस खून्खारी से उस्ने अप्ने होंठों से मेरे होंठों को कभी पीना और कभी पीसना शुरु किया, उससे साफ़ जाहिर हो गया कि मैना भी हमारी उल्फ़त को ख्वाबगाह तक पहुंचाने के लिये शुरु से ही उतना ही तड़पती रही है जितना कि मैं", आगे है, "जिस तेजी से मौत मैना के वालिद को दबोचती रही उसी तेजी से मुमटी मे मेरा और मैना का जिस्मानी जुनून बढ़ता रहा. हर नये नये अदीब कि तरह मैं भी अपनी जिन्दगी को फ़ौरन से पेश्तर अदब मे ढाल देने के लिये उतावला रहा करता था. लिहाजा मैं "मुमटी" उन्वान से डायरी वाले अन्दाज में एक अफ़्साना लिखने बैठ गया जिसमे मैने यह शायरान: खयाल पेश किया कि मोहोब्बत ही मौत के घिनौने जादू को तोड़ सकती है. अफ़्साने मे मैने यह दिखाया कि जिस घर मे मौत मंडरा रही है उसकी मुमटी मे हीरो-हीरोइन एक दुसरे को बाहों मे लिये बुढ़ापे और मौत के आगे जिन्दगी और जवानी की चुनौती रख रहे हैं. सेक्स गोया मौत को ठेन्गा दिखने की एक शानदार गो नाकामयाब कोशिश है".
तखतराम के जूतों मे जोशी जी ने अपनी "सुन कर सीखी भाषा" मे एक बार फ़िर मुझे हक्का बक्का छोंड़ दिया है. पागलों की तरह एक एक शब्द, एक एक लाइन पढ़ी और मानना पड़ा कि अपने आप को नकारने की ताकत रखने वाला ही शुद्ध कलाकार है, जो यह सिद्ध कर सके कि कला का एक अलग वजूद है, कलाकार से नितांत प्रथक. पाठक लेखक को कहीं भी उपन्यास और अपने बीच नहीं पाता, एक बहता हुआ कथानक जो बस नरक का निर्मार्ण करता जाता है, किसी सपनीले जगत की भान्ति दूर नहीं बस हमारे आस पास ही, पाठक को अपने भीतर भी मिले तो कोई बड़ी बात नहीं . हमज़ाद पढ़ने के बाद भी कहीं आशा बची रहे, कहीं आदर्शों पर विश्वास रहे, कहीं रत्ती भर भी आशंका हो कि नरक कहिन और नही यहीं है, तो शायद उपन्यास के लिखे जाने का उद्देश्य ही पूरा नहीं हुआ. फ़िर वही सवाल उठ खड़ा होता है जो हमज़ाद के
पिछवाड़े मिला था ..."लेकिन क्या थोड़ी सी झूठी इन्सानियत के साथ यह हम ही नहीं हैं??"
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6 comments:
bhai pehali baar hindi blog dekha hai..abhi padaa nahin hai..baad mein padhoongaa..magar dhanya ho gaya!
not many people have this much guts.
रवीन्द्र जी,
आपने अपने पहले ब्लॉग के पहले ही पोस्ट से धमाकेदार शुरूवात की है। आमतौर पर लोग ब्लॉग पर आलोचनाओं या समीक्षाओं को लिखने का जोखिम नहीं उठाना चाहते और यदि चंद लोग लिखते भी हैं तो विचारों को विस्तार नहीं दे पाते। 'हमजाद' की आपकी समीक्षा पठनीय है। भविष्य में मैं आपको एक सक्रिय ब्लॉगर के रूप में देखना चाहूँगा।
शुभकामनाएँ
kabhi joshi ji ko padha nahi ....aur padhne se pahle sameeksha padh lena ghalat bhi hai...par ye sameeksa hai hi nahi....aisa tab hota hai ki jab ek kshudhatur paathak ko kuch naya milta hai....aur use jhakjhor deta hai.....ye ek diary ke kuch panne hain jo aadhe tumne likhe hian aur aadhe manohar shyaam joghi ne....
tum nahin sudhroge...!!!
आपकी पोस्ट पढ़ कर लगा कि आप सही कहते हैं कि,
'हिन्दी पढ़ता हूं तो मिट्टी की खुशबू आती है, सोंधी सोंधी...'
स्वागत है हिन्दी चिट्ठे संसार में।
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