Tuesday, January 9, 2007

भस्मासुर की मौत



नदी भावनाओं की उफ़नती
शब्दों के किनारों को तोड़ती
गति यति अलंकार शैली और छंदों के
घाट, पेड़, झोपड़े और बजार कुचलती
अंदर तक घुस आयी है
मेरे अपने आंगन तक
सब कुछ बह गया बाढ़ में मेरा
और इस सब कुछ के खो जाने की खुशी
नंगे आसमान के नीचे
सर पर हाथ रख
भस्मासुर बन नाच रहा हूं
विश्वमोहिनी के साथ
मस्त, ताक धिन, ताक धिन...
कहीं गुम होना
प्रथम मिलन के घून्घट सा है
अबूझ, अंजान, उलझा, आकर्षण
भस्मासुर होने का दंड क्या है
खुद को खोना
और ये सोंच कर
इस बाढ़ में मैं छत पर
बाढ़ से बचा बैठा नहीं रह पाता
कूद पड़ता हूं नदी के तांडव में
बेशक मरने के लिये
भस्मासुर की मौत की खुशी में
कहीं दूर ढोलक की थापों पर
एक कविता जन्म लेती है.

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