Thursday, January 4, 2007

पान्चाली


छोटा कस्बा, दोपहर का समय, चौराहे पर फ़िर भी सन्नाटा नहीं था, एक विशेष कारण से। सिगरेट के धुयें से घिरे कुछ लड़के दुनिया और भाग्य की चाशनी बना कर चाट रहे थे। यहां खड़े होने का कोई खास कारण नहीं था,बस ये कि गर्ल्स काँलेज में छुट्टी बस होने ही वाली थी। तो ऐसे समय पर साली धूप भी क्या चीज है ।

धूप से थकी घड़ी ने ३:३० बजाये और उसी के जैसे राहों पर बिछे मुरझाये फूल खिलने और,काँलेज गेट के खुलने का इन्तजार करने लगे। जिन्हे आदत नही वो सर झुकाये, और बाकी खिलखिलाती लड़कियों की प्रदर्शनी सड़क पर चलने लगी। एक औटो ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया, कुछ खास ही था उसमें,शायद कोई लड़की अपना दुपट्टा सम्भालना भूलकर सामान सम्भालने में लगी थी, दुपट्टा बाहर फ़हरा रहा था।

सड़क पर खड़े भाईयों से देखा ना गया और वो पतंग के साथ-साथ चर्खी की भी मांग करने लगे, मांगें पूरी न होती दिखिं, या लगा अनसुनी हो गयीं, तो पास जाकर बताने का लोभ सम्वरण ना कर सके। एक महारथी की मोटरसाईकिल घरघरा उठी, और ये जा वो जा। लड़की अब भी बेखबर थी, शायद इसी लिये दुपट्टा उसी शान से फ़हरा रहा था।

सारथी ने रथी को इशारे से रणनीति समझायी, आंखों के कुछ इशारे और ठहाके गूंज उठे, अर्जुन ने कृश्ण से आग्रह किया," मधुसूदन रथ की स्पीड बढायें, मैं आज कुछ कर ही दिखाऊंगा"..
मधुसूदन उवाच,"ये ले साले ,तु भी क्या याद करेगा, कर ले सारे अरमान पूरे।

रास रचईया ने एक्सीलेटर पर पकड़ मजबूत की और रथ औटो के साथ चल रहा था। हां इस बीच सारथी और रथी दोनों ने दो दो हाथ अपने अपने केशों के बीच भी फ़िराये थे, और रथी ने तो १ या २ बटन भी खोल दिये थे, कहने कि अवश्यक्ता नहिं है फ़िर भी निःसन्देह शर्ट के ही।
रथ के औटो के साथ आते ही भामापति,बन गये दुर्योधन और रथी को अर्जुन से दुश्शासन बनाते हुये आदेश दिया,"मैदान साफ़ है ,खीन्च बे खीन्च"।

दुश्शासन कलयुगी था कदाचित भयभीत भी, औटो में बैठी पन्चाली की ओर बिना देखे, बस दुपट्टे कि ओर इशारा करते हुये बोलता भया,"अबे पूछ तो ले, इसके पीछे क्या क्या छुपाये रहती है"।

लड़की, अरे वही जो कि पान्चाली थी और उड़ते दुपट्टे के पीछे जाने क्या क्या छुपाये रहती थी, अब भी, ना चीर बढ़ाने वाले श्री कृश्ण को याद कर रही थी, ना भीष्म, द्रोणाचार्य और अपने पतियों को गालियों से नहला रही थी। ससुरी वो भी कलयुगी जो ठहरी, क्या पता खुद ही उछल कर बैठ ही जाये दुर्योधन की जन्घा पर!!
औटो वाला दुश्शासन और उसके अग्रज का(जो कलयुग में सिगरेटिये मित्र बन कर अवतरित हुये थे), अभिप्राय समझ गया था, और एक्सीलेटर बढ़ाने पर बस पकड़ मजबूत करने ही जा रहा था, पर हस्तिनापुर युवराज से कौन पंगा ले, उसने देखा ही नहीं।

औटो में पान्चाली अकेली नहीं सत्यभामा और रुक्मिनी भी थीं, लेकिन पन्चाली को देखते ही दुर्योधन ,अपने असली रूप में आ गया, डाईरेक्टर कि आवाज गून्ज रही थी, "कट कट", क्योंकि डाईलाग था,"हमारे लिये बाहर उड़ा रखा है क्या?", पर दुर्योधन ने "हमारे लिये" के बाद कहा "मम्मी आप"...




- रवीन्द्र नाथ भारतीय

6 comments:

Anonymous said...

वाह सुन्दर लघुकथा। आपकी लेखन शैली उन्नत है। बस यूँ ही नियमित लिखते रहिए।

Anonymous said...

काफी अच्छा लिखते है आप ! नियमित लिखते रहीये।

"हमजाद" की समिक्षा भी पढी थी मैने, वह भी एक बेहतरीन समिक्षा थी!

अनुनाद सिंह said...

कथा अच्छी लगी।

बस कहीं-कहीं वर्तनी(स्पेलिंग) की गलतियां हैं।

Udan Tashtari said...

बढ़ियां. आगे भी लिखते रहें, इंतजार रहेगा.

Divine India said...

bhut mazedar hai aapki katha

Arun Tangri said...

hehe