Tuesday, January 16, 2007

प्रेम पगे छंद




बहुत दिन हुये छुप छुप जीते

पल पल तेरा मन ही मन अलिंगन करते,

मानस कानन में भॊंरा बन

मैं भी कुछ मणिबन्ध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।



गति, यति, लय, और शब्द शक्ति से

आग्नि शिखा से तेरे तन पर,

धैर्य्य भुलाते भावों के संग

मंथर मतवाले बंध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।



अस्त व्यस्त सी राह भटकती

हर्ष विकम्पित अंगुलियों से,

तेरी कोमल कन्चन कटि पर

ईक्क्षा के अनुबंध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।



भस्म लगाये होश भुलाये

विष पीने को तत्पर शिव सा,

रक्तिम लालायित अधरों पर

अनियन्त्रित सम्बन्ध लिखूं,

प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।

7 comments:

Udan Tashtari said...

सुंदर रचना है, बधाई.

राकेश खंडेलवाल said...

अच्छा लिखा है उपस्थित जी. लिखते रहिये
इक्क्षा को इच्छा लिखें

Reetesh Gupta said...

सुंदर रचना है भईये ॥ बधाई

रीतेश गुप्ता

Divine India said...

बस मैं तो मदमस्त हो गया इन
उत्तम भावनाओ का सानिध्य पाकर
क्या बखुबी उभारा है मन के उठते
कसक को...हर्ष विकम्पित...तेरी कोमल
कंचन कटि पर...!!!मतवाला कर गया
यह शब्द....।

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया कविता है!

Dr. Seema Kumar said...

सुंदर छंद तो लिख ही दिए । आगे के लिए भी शुभकामनाएँ ।

Anonymous said...


रिपुदमन पचौरी said......

मदुमास के मधुर गीतों में यदि मुझको तुम गाते
सखियों के मोहक व्यंगों से कहो कहाँ बच पाते
घन्टों अपना ही प्रतिबिम्ब देख उसे निहरा करती
प्रिरे यदि तुम अपनी कविता के छंद मुझे दे जाते !