Friday, January 26, 2007

एक मशीन बची है





उसकी वो


उसकी
इस नदी के किनारे
जाने कब से
राह तकती वो
वापस नही गयी
नदी बन आज भी बहती है ।

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अंधेरा


अंधेरा हुआ
झींगुर लगे रोने
जुगनु चमकने

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खुशबू


पूरी ना उड़ जाये कहीं
डर से तुमने
शीशी इत्र की झट से
बस एक बूंद बिखेर
बन्द कर ली
बाग के खिले फ़ूल को कोई डर क्यों नहीं ?

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उसका कहा


ऊंची खिड़की का एक पट खोल
झांक, उसने
आवाज़ और आंसू दोनो दबाते कहा
जानते हो मेरे घर में
तुम्हारे लिये
बस ये खिड़की ही खुली है
दरवाजे नहीं
उनके तालों की चाभी
तो तुमने वहां उतने नीचे
होते ही गवां दी ।

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मशीन


कविता, कहानी, उपन्यास और व्यंग
लिखे, जोड़े
और तालियों के सपनों मे सो गया
कुछ और नहीं बस
एक और कवि मरा पड़ा है
शब्दों का जाल बुनती मकडी और
एक मशीन बची है


7 comments:

renu ahuja said...

अंधेरे पर लिखी आपकी यह लघु कविता, हाइकु विधा के काफ़ी करीब है, यदि ५-७-५ अक्षरों का ध्यान रखा जाता तो ! ब्लाग में चित्रो का चयन भी काफ़ी उम्दा है, आपकी काव्य-निष्ठा सराहनीय है
-रेणू आहूजा.

Udan Tashtari said...

सुँदर है, अच्छी लगी आपकी छोटी छोटी किन्तु पूर्ण कवितायें. बधाई.

Manish Kumar said...

मशीन बहुत अच्छी लगी !
वैसे कवि की जगह लेखक का प्रयोग कैसा रहता ?

रंजू भाटिया said...

खुशबू ,मशीन..

यह दोनो बहुत ही बेहतरीन लगी
पढ़ के बहुत अच्छा लगा.. शुक्रिया..

Divine India said...

यह तो हाइकु से मिलती जुलती कविता है,सही लिखा है…बातों में संदर्भ दिखता है…बधाई।

राकेश खंडेलवाल said...

बाग के खिले फ़ूल को कोई डर क्यों नहीं ?

बहुत सुन्दर भाव हैं

Dr. Seema Kumar said...

आपकी अभिव्यक्ति अच्छी लगी, खासकर 'मशीन' ।

लगता है शब्दों के जाल ने आपको आफी प्रभावित किया है । 'शब्द-जाल' पर आपकी टिप्पणियों का जावाब जरूर देखें : http://lalpili.blogspot.com/2007/01/blog-post_23.html