उसकी वो
उसकी
इस नदी के किनारे
जाने कब से
राह तकती वो
वापस नही गयी
नदी बन आज भी बहती है ।
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अंधेरा
अंधेरा
अंधेरा हुआ
झींगुर लगे रोने
जुगनु चमकने
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खुशबू
खुशबू
पूरी ना उड़ जाये कहीं
डर से तुमने
शीशी इत्र की झट से
बस एक बूंद बिखेर
बन्द कर ली
बाग के खिले फ़ूल को कोई डर क्यों नहीं ?
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उसका कहा
ऊंची खिड़की का एक पट खोल
झांक, उसने
आवाज़ और आंसू दोनो दबाते कहा
जानते हो मेरे घर में
तुम्हारे लिये
बस ये खिड़की ही खुली है
दरवाजे नहीं
उनके तालों की चाभी
तो तुमने वहां उतने नीचे
होते ही गवां दी ।
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मशीन
कविता, कहानी, उपन्यास और व्यंग
लिखे, जोड़े
और तालियों के सपनों मे सो गया
कुछ और नहीं बस
एक और कवि मरा पड़ा है
शब्दों का जाल बुनती मकडी और
एक मशीन बची है
7 comments:
अंधेरे पर लिखी आपकी यह लघु कविता, हाइकु विधा के काफ़ी करीब है, यदि ५-७-५ अक्षरों का ध्यान रखा जाता तो ! ब्लाग में चित्रो का चयन भी काफ़ी उम्दा है, आपकी काव्य-निष्ठा सराहनीय है
-रेणू आहूजा.
सुँदर है, अच्छी लगी आपकी छोटी छोटी किन्तु पूर्ण कवितायें. बधाई.
मशीन बहुत अच्छी लगी !
वैसे कवि की जगह लेखक का प्रयोग कैसा रहता ?
खुशबू ,मशीन..
यह दोनो बहुत ही बेहतरीन लगी
पढ़ के बहुत अच्छा लगा.. शुक्रिया..
यह तो हाइकु से मिलती जुलती कविता है,सही लिखा है…बातों में संदर्भ दिखता है…बधाई।
बाग के खिले फ़ूल को कोई डर क्यों नहीं ?
बहुत सुन्दर भाव हैं
आपकी अभिव्यक्ति अच्छी लगी, खासकर 'मशीन' ।
लगता है शब्दों के जाल ने आपको आफी प्रभावित किया है । 'शब्द-जाल' पर आपकी टिप्पणियों का जावाब जरूर देखें : http://lalpili.blogspot.com/2007/01/blog-post_23.html
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