Its long I wrote anything here, but better late than never, so starting this again (of course with some changes). Just finished reading a book the Title says “For Kids, By Kids”. It’s a collection of award winning fiction/non-fiction pieces from the scholastic writing awards of 2007. As the title says all, the entries are from writers of the age ten to sixteen all of them school kids in India.
Divided in two sections fiction/Non-fiction the book has some memorable entries especially in Non-fiction section; most of them are travel/trip stories. The best are the ones were the writers (kids) explain even a minute detail of their journey and the way they explore new experiences. The editors say the entries are selected based on the amount of original content they have, and I agree with them. Sometimes you may feel the stories are boring but with some exception I doubt if you at all fell they are inspired by some other pieces that kids usually get to read at least in school.
Thanks Scholastic for this nice effort.
Sunday, June 8, 2008
Sunday, May 20, 2007
http://jayprakashmanas.blogspot.com/2007/05/blog-post.html
नीचे लिखे को भले न पढें इस लेख को अवश्य पढें ।जयदीप डांगी के नाम पाती ..
कलम की ताकत, और उपेक्षा भी हर कालखन्ड में समानान्तर, को लेकर कई सवाल सर उठाते थे, कभी कभी मन में । यह लेख पढ कर तकनीकि प्रतिभा पर भी वैसे ही सवाल खड़े हुये हैं । अब लगता है, वे सवाल, वह द्वंद मात्र कलम का नहीं था, सवाल बड़ा था । समाज के तथाकथित अगुआओं द्वारा हर उस प्रतिभा को जो उन्हे चुनॊती दे सकती है, दे रही है, जो उन नियमों से कहीं भी अलग हो चले, जो उन्हे सही लगे और उन्होने थोपे, ऐसी प्रतिभाओं का दमन आज नहीं सदियों से । आज बस इसका एक अतिविकृत रूप सामने है ।
गुलाम मानसिकता भी परदे मे ही सही पर है अभी भी । पिछलग्गूपन से पीछा छुड़ाना इतना भी मुश्किल नहीं । कुछ नया कुछ अलग कुछ ऐसा जो आज की कम्पयूटर महाशक्तियों के पांव जड़ से उखाड़ फ़ेंकने की सोंच सके । और जब जगदीप डांगी ने इतनी शारीरिक, आर्थिक और ना जाने कितनी मानसिक समस्याओं के बीच रहकर, लड़कर एक तमाचा लगाया इस मानसिकता पर तो, इसका प्रतिफ़ल उन्हे ये मिल रहा है ।
तकनीकि तॊर पर, जगदीप जी का वेब ब्राउसर,(ना मैंने प्रयोग किया है और ना ही कहीं देखा है पर जितना भी पढा (1) (2) (3) उसके आधार पर) कोई बहुत ही नया अविष्कार नहीं है । पर जरा पीछे छिपे तथ्यों को देखिये, जगदीप ने इसे अपने अंग्रेजी भाषा के सीमित ज्ञान के बाद भी, और केवल ब्राउजर ही नहीं सामान्य जन के लिये इसे सरल, सुबोध बनाने के लिये आफ़्लाइन डिक्शनरी भी दी, कई ऐसे फ़ीचर्स जोडे जो ईंटरनेट एक्स्प्लोरर मे नहीं हैं, और यह सब अकेले । ऐसी प्रतिभा को यदि संरक्षण मिले, समय मिले सुविधायें मिलें, क्या नहीं सम्भव है ? क्या नहीं कर दिखायेंगी ऐसी प्रतिभायें ? इतनी समस्याओं असक्षमताऒं और सीमित साधनों में ही जब इतना कर दिखाया और उद्देश्य बस जन कल्याण, इतना समर्पण है कहां आज ? ऐसी प्रतिभा को सुविधायें देना तो दूर उसके प्रयास की उपेक्षा हो रही है, वादे किये गये और भुला दिये गये ।
एक युवा होने के नाते मैं तो ऐसा ही अनुभव करता हूं कि, ऐसा देखकर आगे कौन जगदीप डान्गी बनने को खड़ा होगा । और वह भी ऐसे समय जब मोटे वेतन लिये कितने ही गैर सरकारी, हां विदेशी पीछे खड़े हैं। ना ही इसे मैं गलत समझता हूं और ना ही मैं इससे बच सका हुं । पर, हजारों नये सपने हजारों नये धधकते ज्वालामुखी मन मे लिये ऐसे प्रतिभाशाली युवा जब जानेंगे डांगी के विषय मे तो कौन आगे आयेगा ऐसा कुछ कर दिखाने की ललक लिये । एक अकेले डांगी के साथ नहीं पूरी युवा पीढी को कुछ भी नया, और वह भी जो जन कल्याण की भावना से किया जाये, ऐसा कुछ भी कर सकने से भयभीत करने के सिवा और है क्या ये ?
दुहराऊंगा मानस जी की बात को और यही ईश्वर से प्रर्थना भी है, कि जगदीप जी के नाम मे निहित दीप जलता रहे । पर उनकी हालत पढ कर निराशा हुयी । राजनीति और राजनेताओं पर से विश्वास तो उठ ही चुका है । हां, जनमानस तक यदि एक वैज्ञानिक की, उसकी मेघा के अपमान की और उससे भी अधिक उपेक्षा की सच्चाई पहुंच सके और कोई सामाजिक प्रयास शुरु हो सके तो कोई बड़ी बात नहीं कि, ऐसी प्रतिभाओं के दम हम दुनिया का नक्शा बदल सकने की कूवत रखते हैं ।
हिन्दी ब्लोग जगत के सभी नियन्त्रिक, अनियन्त्रित, शक्तियों, भक्तियों, मेलों हाटों, तश्तरियों, पतीलों, कलशों, हुन्डों, कुल्लह्डों, उन्मुक्तों, बन्धकों, पुजारियों, सरथियों, ड्राइवरों, मेरा पन्ना, तेरा पन्ना , हम सब्का पन्नों सबसे निवेदन है, कि वैचारिक योगदान में तो पीछे ना रहें..कम से कम इस रपट को पढें अवश्य...किसी भी क्रांति से पहले आवश्यक है, वैचारिक क्रांति । विशेषकर पत्रकार और टी वी न्यूज चैनल्स से जुड़े लोगों से कि इसे आम जन तक पहुंचाना सामाजिक कर्तव्य ही नहीं, व्यक्तिगत जिम्मेदारी है ।
और हां विकीपीडिया के इस लेख को भी पढें, यह जानने के लिये कि उन देशों मे जो आज शिखर पर हैं, ऐसी प्रतिभाओं को किस प्रकार संरक्षण और प्रोत्साहन दिया जाता है ।
कलम की ताकत, और उपेक्षा भी हर कालखन्ड में समानान्तर, को लेकर कई सवाल सर उठाते थे, कभी कभी मन में । यह लेख पढ कर तकनीकि प्रतिभा पर भी वैसे ही सवाल खड़े हुये हैं । अब लगता है, वे सवाल, वह द्वंद मात्र कलम का नहीं था, सवाल बड़ा था । समाज के तथाकथित अगुआओं द्वारा हर उस प्रतिभा को जो उन्हे चुनॊती दे सकती है, दे रही है, जो उन नियमों से कहीं भी अलग हो चले, जो उन्हे सही लगे और उन्होने थोपे, ऐसी प्रतिभाओं का दमन आज नहीं सदियों से । आज बस इसका एक अतिविकृत रूप सामने है ।
गुलाम मानसिकता भी परदे मे ही सही पर है अभी भी । पिछलग्गूपन से पीछा छुड़ाना इतना भी मुश्किल नहीं । कुछ नया कुछ अलग कुछ ऐसा जो आज की कम्पयूटर महाशक्तियों के पांव जड़ से उखाड़ फ़ेंकने की सोंच सके । और जब जगदीप डांगी ने इतनी शारीरिक, आर्थिक और ना जाने कितनी मानसिक समस्याओं के बीच रहकर, लड़कर एक तमाचा लगाया इस मानसिकता पर तो, इसका प्रतिफ़ल उन्हे ये मिल रहा है ।
तकनीकि तॊर पर, जगदीप जी का वेब ब्राउसर,(ना मैंने प्रयोग किया है और ना ही कहीं देखा है पर जितना भी पढा (1) (2) (3) उसके आधार पर) कोई बहुत ही नया अविष्कार नहीं है । पर जरा पीछे छिपे तथ्यों को देखिये, जगदीप ने इसे अपने अंग्रेजी भाषा के सीमित ज्ञान के बाद भी, और केवल ब्राउजर ही नहीं सामान्य जन के लिये इसे सरल, सुबोध बनाने के लिये आफ़्लाइन डिक्शनरी भी दी, कई ऐसे फ़ीचर्स जोडे जो ईंटरनेट एक्स्प्लोरर मे नहीं हैं, और यह सब अकेले । ऐसी प्रतिभा को यदि संरक्षण मिले, समय मिले सुविधायें मिलें, क्या नहीं सम्भव है ? क्या नहीं कर दिखायेंगी ऐसी प्रतिभायें ? इतनी समस्याओं असक्षमताऒं और सीमित साधनों में ही जब इतना कर दिखाया और उद्देश्य बस जन कल्याण, इतना समर्पण है कहां आज ? ऐसी प्रतिभा को सुविधायें देना तो दूर उसके प्रयास की उपेक्षा हो रही है, वादे किये गये और भुला दिये गये ।
एक युवा होने के नाते मैं तो ऐसा ही अनुभव करता हूं कि, ऐसा देखकर आगे कौन जगदीप डान्गी बनने को खड़ा होगा । और वह भी ऐसे समय जब मोटे वेतन लिये कितने ही गैर सरकारी, हां विदेशी पीछे खड़े हैं। ना ही इसे मैं गलत समझता हूं और ना ही मैं इससे बच सका हुं । पर, हजारों नये सपने हजारों नये धधकते ज्वालामुखी मन मे लिये ऐसे प्रतिभाशाली युवा जब जानेंगे डांगी के विषय मे तो कौन आगे आयेगा ऐसा कुछ कर दिखाने की ललक लिये । एक अकेले डांगी के साथ नहीं पूरी युवा पीढी को कुछ भी नया, और वह भी जो जन कल्याण की भावना से किया जाये, ऐसा कुछ भी कर सकने से भयभीत करने के सिवा और है क्या ये ?
दुहराऊंगा मानस जी की बात को और यही ईश्वर से प्रर्थना भी है, कि जगदीप जी के नाम मे निहित दीप जलता रहे । पर उनकी हालत पढ कर निराशा हुयी । राजनीति और राजनेताओं पर से विश्वास तो उठ ही चुका है । हां, जनमानस तक यदि एक वैज्ञानिक की, उसकी मेघा के अपमान की और उससे भी अधिक उपेक्षा की सच्चाई पहुंच सके और कोई सामाजिक प्रयास शुरु हो सके तो कोई बड़ी बात नहीं कि, ऐसी प्रतिभाओं के दम हम दुनिया का नक्शा बदल सकने की कूवत रखते हैं ।
हिन्दी ब्लोग जगत के सभी नियन्त्रिक, अनियन्त्रित, शक्तियों, भक्तियों, मेलों हाटों, तश्तरियों, पतीलों, कलशों, हुन्डों, कुल्लह्डों, उन्मुक्तों, बन्धकों, पुजारियों, सरथियों, ड्राइवरों, मेरा पन्ना, तेरा पन्ना , हम सब्का पन्नों सबसे निवेदन है, कि वैचारिक योगदान में तो पीछे ना रहें..कम से कम इस रपट को पढें अवश्य...किसी भी क्रांति से पहले आवश्यक है, वैचारिक क्रांति । विशेषकर पत्रकार और टी वी न्यूज चैनल्स से जुड़े लोगों से कि इसे आम जन तक पहुंचाना सामाजिक कर्तव्य ही नहीं, व्यक्तिगत जिम्मेदारी है ।
और हां विकीपीडिया के इस लेख को भी पढें, यह जानने के लिये कि उन देशों मे जो आज शिखर पर हैं, ऐसी प्रतिभाओं को किस प्रकार संरक्षण और प्रोत्साहन दिया जाता है ।
Monday, May 14, 2007
थोड़ा आसमान उसका अपना - 3
लड़का डाक्टर है, अच्छा ही है ये पढ़ाई में तेज़ है, पर बी.ए. कर ले, बहुत है, बी.एससी. है ही कहाँ यहाँ, कौन लेकर जाएगा इसे रोज़-रोज़ कॉलेज तक 20 किलोमीटर। अब भई इतनी मेहनत लड़कों के साथ चलो की भी जा सकती है, समझा करिए, बड़ी दिक्कत वाली बात है। दीवारें ऊँची लगने लगी थीं उसी दिन से, पर कितनी खुश हुई थी मैं जब अपने यहाँ भी बी.एससी. शुरू हो गया था, उसी साल। मिश्रा जी ने सबसे पहले पिता जी को ही बताया था, और मैं कहती थी ना कि पिता जी मान जाएँगे उन्होंने एडमीशन भी तो करवा दिया था।
अभी सोच रहे होंगे, कि मैंने बी.एससी. पूरा क्यों नही किया। मुझे तो कोई ज़रूरत ही नहीं थी, क्या करती और अभी भी क्या कर रही हूँ बी.ए. का भी। हँसो और कहो डाक्टरनी हो ना मज़े से बैठी ही तो रहती होगी। घर की दीवारों में आँखें भी तो थीं, बड़ी-बड़ी तेज़ आँखें, आँखें दीवारों की तरह एक जगह रुकी हुई कहाँ थीं, घूमती रहती थीं, मेरे आगे पीछे, ऐसी ही किसी आँख ने क्लास के बाद, वो एक मुसलमान लड़का था ना, मुझे तो नाम भी याद नहीं अब, उससे बात करते देख लिया था। उस दिन के बाद दीवारों ने मुझे बस बी.ए. की परीक्षाओं के लिए ही निकलने दिया, और फिर यहाँ के लिए इनके साथ कार में, तुम्हारे घर भी तो कितना कम आने लगी थी। तुम क्या जानो तुम तो परदेसी ठहरे, आते ही कितना कम थे, कितनी पढ़ाई थी। उस दिन वो आँखें पिता जी की आँखों में समा गई थीं, जब उन्होंने पहली और आज तक आख़िरी बार मुझे थप्पड़ मारा था, पत्थर की आँखें, पथरीली, लाल ईटें होती हैं ना वैसी. . .
तुमने पूछा था काम, काम यहाँ है ही नहीं, मैं तो कहती हूँ माँ जी से कि कुछ नौकर कम कर दीजिए पर मेरी सुनती ही नहीं। मुझे बस खाना परोसना है, बाकी हर काम तो बाकी लोग ही करते हैं। मज़े करो, यही कह रहे होंगे, हँस भी रहे होंगे। सुधा के लिए ये कभी-कभी पत्रिकाएँ ले आते हैं, पर अब तो मन भी नहीं होता कुछ पढ़ने का, और मैं खुद कभी कहती भी नहीं इनसे। मुझसे अच्छा तो मिट्ठू है, अरे वही हरियल कम से कम मन कि बात तो कह सकता है, भले ही पंख फड़फड़ा कर कहे। सोचती हूँ किसी दिन पिंजरा खोल दूँ, उड़ा ही दूँ इसे। पर मेरे घर की दीवारें तो ऊँची हैं कोई पंछी ही बाहर उड़ कर जा सकता है, मेरे और हाँ तुम्हारे जैसे भी. . .इंसान कहाँ से इतनी ताक़त लाएँगे, कि उड़ने की सोच भी सकें. . .
पता नहीं तुम भूल गए या तुम्हें याद है, जब तुम आने वाले थे छुट्टियों मे। कितने दिनों बाद तुम्हें देखने वाली थी, ट्रेन का टाइम 12 बजे था और मैं घर से मिताली दीदी को मिलने का बहाना बना कर 10 बजे से ही बैठी थी तुम्हारे यहाँ। बहाना इसलिए क्योंकि दीवारों की ऊँचाई का कुछ-कुछ अंदाज़ा लगा चुकी थी तब तक, और आई इसलिए थी क्योंकि पंख बाकी थे तब तक। शायद पिंजरा भी नहीं मिल सका था दीवारों को अभी मेरे लिए। दीवारें तो तुम्हारे घर में भी थीं, आँखों वाली, चाची जी की आँखों में, पर मुझे तो रुकना ही था।
आज भी जब इनकी छोटी बहन, मेरी ननद सुधा बार-बार माधुरी से मिलने जाती है, मुझे वही दिन याद आता है, जब मैंने 2 घंटे उन काँटेदार आँखों वाली दीवारों के सामने बिताए थे। मिताली दीदी के कमरे में थी पर जाने कितनी बार चाची जी आकर माँ, पिता जी और दादी का हाल पूछ गई थीं। मुझे तो रुकना ही था, तुम्हें देखना जो था इतने दिनों बाद, पंख भी तो बचे ही थे मेरे तब तक। और फिर तुम आए भी नही. . .पर आज जब सुधा जाती है, मैं मन ही मन यही सोचती हूँ कि मदन आ गया हो, तुम्हारी तरह वो भी बस फ़ोन ना करे, कि आ नहीं सकता अभी कुछ काम बचा है, बड़े आए काम वाले। हमेशा ही लेट-लतीफ़ रहे हो।
कभी-कभी लगता है कि ग़लत कर रही हूँ सुधा को रोकना चाहिए। उसे भी पता चलना चाहिए कि दीवारें ऊँची हैं, सपनों की दुनिया में ना रहे। ऊँची हैं और पत्थर की बनी हैं, कोई सिरफिरा ही तोड़ना चाहेगा, जैसा तुमने चाहा था, मैंने भी, पर मुझे शायद अंदाज़ा था कुछ-कुछ ऊँचाई और मज़बूती का। तुम तो घर इतना कम रहे हो, शायद ना जानते हो, मैं भी तो बहुत दिनों बाद जान पाई थी। पर तुम इतने सिरफिरे क्यों बन गए सुमित, ये क्यों किया. . .?
सुधा जब भी खुश-खुश लौटती है, होंठों पर एक दबी हँसी और थोड़ी-सी मीठी खीझ लिए हुए, जब भी पढ़ते-पढ़ते एकदम से हँस पड़ती है, बालों में उँगलियाँ फिराती है या घर भर में नाचती फिरती है, कभी ज़ोर से कभी मन ही मन खुश होते गाने गाती है, भले ही माता जी उसे कुछ भी कहती रहें, जैसे मेरी माँ कहा करती थी, मैं भीतर से काँप जाती हूँ एक अनजानी-सी खुशी की चमक के साथ डर की बिजलियाँ भी कड़कती हैं, और फिर अँधेरा, काली रात। फिर भी ना जाने क्यों एक संतोष है, पंछी अभी भी चौपाए नहीं बने, ज़मीन पर चलना उन्हें समय ही सिखाएगा अब भी, जैसे मैंने सीखा, कितनी समझदार निकली मैं, नहीं? पर तुम हर कविता का मतलब मुझे समझाने वाले. . .इस छोटे से मेरे तुम्हारे जीवन की कविता का कोई मतलब नहीं, नहीं हो सकता, समझ क्यों नहीं पाए. . .इतने नासमझ कैसे हो गए?
रात बहुत हो गई है, अब बंद करती हूँ, अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है। देखना अभी टयूब लाइट जलाऊँगी और ये सारा अंधेरा तो नहीं कम से कम मेरे आस-पास का तो चला ही जाएगा। पर कभी-कभी जब बिजली चली जाती है, अँधेरे मैं बहुत डरती हूँ तब। पर हाँ तब कोई दिया जलाती हूँ, डर कैसा भाग जाता है मानो दिये से डरकर भागा हो, ये सारी तुम्हें लिखी गई चिट्ठियाँ भी शायद इसीलिए लिखती हूँ। अँधेरे के दिये की तरह तुम्हें लिखी ये चिट्ठियाँ मेरा संबल हैं, पतवार हैं, हथियार हैं, शक्ति हैं मेरी, इन दीवारों के खिलाफ मेरी लड़ाई में, जिसकी शुरुआत तो तुमने की पर मैं साथ न दे सकी. . .
यहाँ कहीं आस-पास होते और मुझे पता दिया होता तो भेज भी देती इन चिट्ठियों को। पर तुम तो अख़बार की उस कटिंग में कैद हो जहाँ तुम्हारे नाम के साथ जाने क्यों लिखा है कि तुमने होस्टल के पंखे से लटक कर जान दे दी, ऐसा क्यों किया? तुमसे आख़िरी बार मिलने भी नहीं आ सकी, तुम्हें विदा करने भी नहीं आ पाई, जैसे तुम नहीं आ पाए थे मुझे विदा करने। कहते तो थे हँस कर कि देवदास की तरह तुम्हारी डोली में कंधा दूँगा, झूठे कहीं के। मैंने भी तो कहा था कि वो तो बस फ़िल्म में था, शरत ने भी अपनी देवदास में बहुत सोच कर भी ये कहाँ लिखा। उसमें तो भाग गया था देवदास, और तुमने, अपनी नहीं मानी, मेरी मानी, शरत की मान ली।
पर मैं भागूँगी नहीं, क्योंकि सुधा को और इस घर की दीवारों को जब भी देखती हूँ अपने घर की दीवारें याद आती हैं, उनमें कैद, मैं खुद याद आती हूँ। मैं तुम्हारी तरह इन दीवारों को और ऊँचा, और मज़बूत नहीं होने दूँगी, हाँ तुम्हारी तरह दीवारों से हार कर उन्हें जीतने की खुशी या और ऊँचा होने का एक और कारण नहीं दूँगी। अगर दीवारें ऊँची हैं तो मैं सुधा को अपने टूटे ही सही पंख दे दूँगी, और उड़ते देखूँगी उसे इन दीवारों के उस पार जहाँ मदन उसका इंतज़ार कर रहा होगा, जैसे तुमने किया था, मेरा उस रात, पर मैं उड़ नहीं पाई, और तुम चले गए. . .जाने कहाँ।
अब तुम्हारी नहीं (लड़ाई छोड़ कर भाग गए किसी कायर की नहीं हो सकती मैं. . .कभी भी नहीं)
कविता
कायदे से तो कहानी यहीं तक पूरी हो जानी चाहिए थी। जाने कितनी पुरानी ठीक इसी के जैसी प्रेम कहानियों की तरह, हाँ, यहाँ थोड़ा-सा और भी कुछ आगे भी हुआ। ये तो नहीं पता कि सुधा और मदन उड़कर ऊँची उठाती दीवारों के पार जा सके या सुधा एक और कविता ही बनी, शादी के बाद भी प्रेमजयी काल के आगे, अपने प्रेमी को पत्र लिखती। सुधा मिट्ठू की तरह पिंजरे में बस मन ही मन फड़फड़ाती रही या उड़ सकी, या मदन भी पेपर की कटिंग ही बना या नहीं। हाँ, उसी रात जब ये लिखा गया, इतना ज़रूर हुआ कि कविता ने इस चिट्ठी को भी बाकी सारी चिट्ठियों की तरह ही पानी में थोड़ी देर भिगोया फिर जब लुगदी बन गई, स्याही काग़ज़ का साथ छोड़ बह गई, तो कूड़े में डाल दिया, और मिट्ठू का पिंजरा छत पर ले जाकर उसे उड़ा दिया। बाकी कविता की ही भाषा में कहें तो, दीवारों की आँखें भी थीं इसलिए पिंजरा फिर से उसकी ही जगह पर रख दिया, दरवाज़ा हल्का-सा खुला छोड़ कर. . . आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही थीं. . .और मिट्ठू का आसमान भी उसका अपना. . .।
शायद आज से एक साल पहले इन मज़बूत दीवारों के उस पार खड़े, सुमित के साथ इनके पार न जा पाने और सुमित के अख़बार की कटिंग बन बचे रह जाने के लिए उसका आज का पश्चाताप इतना ही था, और अपना विरोध जताने का बस यही एक आख़िरी तरीका। बात फिर वही, आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही थीं. . .और मिट्ठू का, सुमित का, सुधा का, मदन का आसमान भी, थोड़ा बहुत उसका भी अपना. . .।
अभी सोच रहे होंगे, कि मैंने बी.एससी. पूरा क्यों नही किया। मुझे तो कोई ज़रूरत ही नहीं थी, क्या करती और अभी भी क्या कर रही हूँ बी.ए. का भी। हँसो और कहो डाक्टरनी हो ना मज़े से बैठी ही तो रहती होगी। घर की दीवारों में आँखें भी तो थीं, बड़ी-बड़ी तेज़ आँखें, आँखें दीवारों की तरह एक जगह रुकी हुई कहाँ थीं, घूमती रहती थीं, मेरे आगे पीछे, ऐसी ही किसी आँख ने क्लास के बाद, वो एक मुसलमान लड़का था ना, मुझे तो नाम भी याद नहीं अब, उससे बात करते देख लिया था। उस दिन के बाद दीवारों ने मुझे बस बी.ए. की परीक्षाओं के लिए ही निकलने दिया, और फिर यहाँ के लिए इनके साथ कार में, तुम्हारे घर भी तो कितना कम आने लगी थी। तुम क्या जानो तुम तो परदेसी ठहरे, आते ही कितना कम थे, कितनी पढ़ाई थी। उस दिन वो आँखें पिता जी की आँखों में समा गई थीं, जब उन्होंने पहली और आज तक आख़िरी बार मुझे थप्पड़ मारा था, पत्थर की आँखें, पथरीली, लाल ईटें होती हैं ना वैसी. . .
तुमने पूछा था काम, काम यहाँ है ही नहीं, मैं तो कहती हूँ माँ जी से कि कुछ नौकर कम कर दीजिए पर मेरी सुनती ही नहीं। मुझे बस खाना परोसना है, बाकी हर काम तो बाकी लोग ही करते हैं। मज़े करो, यही कह रहे होंगे, हँस भी रहे होंगे। सुधा के लिए ये कभी-कभी पत्रिकाएँ ले आते हैं, पर अब तो मन भी नहीं होता कुछ पढ़ने का, और मैं खुद कभी कहती भी नहीं इनसे। मुझसे अच्छा तो मिट्ठू है, अरे वही हरियल कम से कम मन कि बात तो कह सकता है, भले ही पंख फड़फड़ा कर कहे। सोचती हूँ किसी दिन पिंजरा खोल दूँ, उड़ा ही दूँ इसे। पर मेरे घर की दीवारें तो ऊँची हैं कोई पंछी ही बाहर उड़ कर जा सकता है, मेरे और हाँ तुम्हारे जैसे भी. . .इंसान कहाँ से इतनी ताक़त लाएँगे, कि उड़ने की सोच भी सकें. . .
पता नहीं तुम भूल गए या तुम्हें याद है, जब तुम आने वाले थे छुट्टियों मे। कितने दिनों बाद तुम्हें देखने वाली थी, ट्रेन का टाइम 12 बजे था और मैं घर से मिताली दीदी को मिलने का बहाना बना कर 10 बजे से ही बैठी थी तुम्हारे यहाँ। बहाना इसलिए क्योंकि दीवारों की ऊँचाई का कुछ-कुछ अंदाज़ा लगा चुकी थी तब तक, और आई इसलिए थी क्योंकि पंख बाकी थे तब तक। शायद पिंजरा भी नहीं मिल सका था दीवारों को अभी मेरे लिए। दीवारें तो तुम्हारे घर में भी थीं, आँखों वाली, चाची जी की आँखों में, पर मुझे तो रुकना ही था।
आज भी जब इनकी छोटी बहन, मेरी ननद सुधा बार-बार माधुरी से मिलने जाती है, मुझे वही दिन याद आता है, जब मैंने 2 घंटे उन काँटेदार आँखों वाली दीवारों के सामने बिताए थे। मिताली दीदी के कमरे में थी पर जाने कितनी बार चाची जी आकर माँ, पिता जी और दादी का हाल पूछ गई थीं। मुझे तो रुकना ही था, तुम्हें देखना जो था इतने दिनों बाद, पंख भी तो बचे ही थे मेरे तब तक। और फिर तुम आए भी नही. . .पर आज जब सुधा जाती है, मैं मन ही मन यही सोचती हूँ कि मदन आ गया हो, तुम्हारी तरह वो भी बस फ़ोन ना करे, कि आ नहीं सकता अभी कुछ काम बचा है, बड़े आए काम वाले। हमेशा ही लेट-लतीफ़ रहे हो।
कभी-कभी लगता है कि ग़लत कर रही हूँ सुधा को रोकना चाहिए। उसे भी पता चलना चाहिए कि दीवारें ऊँची हैं, सपनों की दुनिया में ना रहे। ऊँची हैं और पत्थर की बनी हैं, कोई सिरफिरा ही तोड़ना चाहेगा, जैसा तुमने चाहा था, मैंने भी, पर मुझे शायद अंदाज़ा था कुछ-कुछ ऊँचाई और मज़बूती का। तुम तो घर इतना कम रहे हो, शायद ना जानते हो, मैं भी तो बहुत दिनों बाद जान पाई थी। पर तुम इतने सिरफिरे क्यों बन गए सुमित, ये क्यों किया. . .?
सुधा जब भी खुश-खुश लौटती है, होंठों पर एक दबी हँसी और थोड़ी-सी मीठी खीझ लिए हुए, जब भी पढ़ते-पढ़ते एकदम से हँस पड़ती है, बालों में उँगलियाँ फिराती है या घर भर में नाचती फिरती है, कभी ज़ोर से कभी मन ही मन खुश होते गाने गाती है, भले ही माता जी उसे कुछ भी कहती रहें, जैसे मेरी माँ कहा करती थी, मैं भीतर से काँप जाती हूँ एक अनजानी-सी खुशी की चमक के साथ डर की बिजलियाँ भी कड़कती हैं, और फिर अँधेरा, काली रात। फिर भी ना जाने क्यों एक संतोष है, पंछी अभी भी चौपाए नहीं बने, ज़मीन पर चलना उन्हें समय ही सिखाएगा अब भी, जैसे मैंने सीखा, कितनी समझदार निकली मैं, नहीं? पर तुम हर कविता का मतलब मुझे समझाने वाले. . .इस छोटे से मेरे तुम्हारे जीवन की कविता का कोई मतलब नहीं, नहीं हो सकता, समझ क्यों नहीं पाए. . .इतने नासमझ कैसे हो गए?
रात बहुत हो गई है, अब बंद करती हूँ, अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है। देखना अभी टयूब लाइट जलाऊँगी और ये सारा अंधेरा तो नहीं कम से कम मेरे आस-पास का तो चला ही जाएगा। पर कभी-कभी जब बिजली चली जाती है, अँधेरे मैं बहुत डरती हूँ तब। पर हाँ तब कोई दिया जलाती हूँ, डर कैसा भाग जाता है मानो दिये से डरकर भागा हो, ये सारी तुम्हें लिखी गई चिट्ठियाँ भी शायद इसीलिए लिखती हूँ। अँधेरे के दिये की तरह तुम्हें लिखी ये चिट्ठियाँ मेरा संबल हैं, पतवार हैं, हथियार हैं, शक्ति हैं मेरी, इन दीवारों के खिलाफ मेरी लड़ाई में, जिसकी शुरुआत तो तुमने की पर मैं साथ न दे सकी. . .
यहाँ कहीं आस-पास होते और मुझे पता दिया होता तो भेज भी देती इन चिट्ठियों को। पर तुम तो अख़बार की उस कटिंग में कैद हो जहाँ तुम्हारे नाम के साथ जाने क्यों लिखा है कि तुमने होस्टल के पंखे से लटक कर जान दे दी, ऐसा क्यों किया? तुमसे आख़िरी बार मिलने भी नहीं आ सकी, तुम्हें विदा करने भी नहीं आ पाई, जैसे तुम नहीं आ पाए थे मुझे विदा करने। कहते तो थे हँस कर कि देवदास की तरह तुम्हारी डोली में कंधा दूँगा, झूठे कहीं के। मैंने भी तो कहा था कि वो तो बस फ़िल्म में था, शरत ने भी अपनी देवदास में बहुत सोच कर भी ये कहाँ लिखा। उसमें तो भाग गया था देवदास, और तुमने, अपनी नहीं मानी, मेरी मानी, शरत की मान ली।
पर मैं भागूँगी नहीं, क्योंकि सुधा को और इस घर की दीवारों को जब भी देखती हूँ अपने घर की दीवारें याद आती हैं, उनमें कैद, मैं खुद याद आती हूँ। मैं तुम्हारी तरह इन दीवारों को और ऊँचा, और मज़बूत नहीं होने दूँगी, हाँ तुम्हारी तरह दीवारों से हार कर उन्हें जीतने की खुशी या और ऊँचा होने का एक और कारण नहीं दूँगी। अगर दीवारें ऊँची हैं तो मैं सुधा को अपने टूटे ही सही पंख दे दूँगी, और उड़ते देखूँगी उसे इन दीवारों के उस पार जहाँ मदन उसका इंतज़ार कर रहा होगा, जैसे तुमने किया था, मेरा उस रात, पर मैं उड़ नहीं पाई, और तुम चले गए. . .जाने कहाँ।
अब तुम्हारी नहीं (लड़ाई छोड़ कर भाग गए किसी कायर की नहीं हो सकती मैं. . .कभी भी नहीं)
कविता
कायदे से तो कहानी यहीं तक पूरी हो जानी चाहिए थी। जाने कितनी पुरानी ठीक इसी के जैसी प्रेम कहानियों की तरह, हाँ, यहाँ थोड़ा-सा और भी कुछ आगे भी हुआ। ये तो नहीं पता कि सुधा और मदन उड़कर ऊँची उठाती दीवारों के पार जा सके या सुधा एक और कविता ही बनी, शादी के बाद भी प्रेमजयी काल के आगे, अपने प्रेमी को पत्र लिखती। सुधा मिट्ठू की तरह पिंजरे में बस मन ही मन फड़फड़ाती रही या उड़ सकी, या मदन भी पेपर की कटिंग ही बना या नहीं। हाँ, उसी रात जब ये लिखा गया, इतना ज़रूर हुआ कि कविता ने इस चिट्ठी को भी बाकी सारी चिट्ठियों की तरह ही पानी में थोड़ी देर भिगोया फिर जब लुगदी बन गई, स्याही काग़ज़ का साथ छोड़ बह गई, तो कूड़े में डाल दिया, और मिट्ठू का पिंजरा छत पर ले जाकर उसे उड़ा दिया। बाकी कविता की ही भाषा में कहें तो, दीवारों की आँखें भी थीं इसलिए पिंजरा फिर से उसकी ही जगह पर रख दिया, दरवाज़ा हल्का-सा खुला छोड़ कर. . . आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही थीं. . .और मिट्ठू का आसमान भी उसका अपना. . .।
शायद आज से एक साल पहले इन मज़बूत दीवारों के उस पार खड़े, सुमित के साथ इनके पार न जा पाने और सुमित के अख़बार की कटिंग बन बचे रह जाने के लिए उसका आज का पश्चाताप इतना ही था, और अपना विरोध जताने का बस यही एक आख़िरी तरीका। बात फिर वही, आख़िर दीवारें भी उसकी अपनी ही थीं. . .और मिट्ठू का, सुमित का, सुधा का, मदन का आसमान भी, थोड़ा बहुत उसका भी अपना. . .।
थोड़ा आसमान उसका अपना - 2
घर में कैसे होंगे सब? चाची के जोड़ों का दर्द अभी भी वैसा ही है या फ़ायदा हुआ उस दवा से जो चाचा जी लाए थे जब मैं आई थी, देखा था मैंने। बेचारे कितने मन से लाए थे और चाची भी बस, सुन ही नहीं रही थीं। चाचा जी तो ठीक ही होंगे। अच्छा, उनकी वैचारिक गोष्ठियाँ नहीं होतीं क्या अब? वो क्या नाम था, "फक्कड़ सभा", अभी तक एक-एक गोष्ठी याद है मुझे तो, छुप-छुप कर सुनते थे हम। नारी मुक्ति, दलित विमर्श और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सबसे आगे हिंदी की समस्या। ख़ैर मुझे तो हँसी भी आई थी यही बात याद करके जब तुम्हें चाचा जी ने इंग्लिश स्कूल भेजा था पढ़ने के लिए, 12 के बाद, हॉस्टल में रहने। जाने कितनी बातें हैं बस बोलने और सुनने में अच्छी और आसान-सी लगती हैं, हाँ करने में उतनी ही अजीब और मुश्किल. . .।
अच्छा उन गोष्ठियों की एक-एक बात समझाने में मुझे कितना समय लगता थ, और तुम कैसे चढ़ाते थे मुझे, दुष्ट कहीं के। याद है, कैसे हिमांशु जी ने वो कविता सुनाई थी, और फिर कहा था, "देश मे प्रेम सर्वाधिक प्राचीन और हाँ साथ ही सर्वाधिक उपेक्षित विषय है, घर-बाहर कितना अंतर आ जाता है, इसके बारे में सोचने में, पढ़ तो सकते हैं, पर कर नहीं सकते, स्वीकार नहीं कर सकते, करता देख नहीं सकते। जिसने किया वो मानने से कतराता है, किसी और को देख उँगलियाँ भी उठाता है। और जाने कितने पड़े हैं जो कभी स्वीकार ही नहीं करते प्रेम, सफ़ाई में बच्चन की बातें, "प्रेम किसी से करना लेकिन करके उसे बताना क्या, झूठे, कपटी।'' उन दिनों कैसे हम परदे के पीछे से सुनते रहते थे ये बातें, बाहर कौन जाए बाप रे, चाचा जी के ग़ुस्से से तो अब भी डर ही लगता है। मेरे बाबू उनके इतने जिगरी दोस्त न होते तो मेरी ही क्या मजाल की मैं तुम्हारे घर आ भी सकती, और तुम भी इतने घर घुस्सू कहीं के, कि कहीं जाते क्यों नही थे। फिर चले गए हॉस्टल अपनी पढ़ाई करने, और अब. . .अब तो।
पता नहीं, अभी भी उनकी वो कविता मंडली वैसी ही है या अब कम हो गई? कितनी कविताएँ सुनी हैं हमने वहाँ। पराग जी, हिमांशु जी, अजय भैया सब अपने में मस्त ही होंगे? उनकी कविताओं की याद अभी भी आती है, कितनी बार इन लोगों की कविताएँ सुन कर बस मन में नए-नए अर्थ दुहराती, नई-नई कल्पनाएँ जोड़ती घर लौटती थी। अब लगता है वो सिर्फ़ अर्थ नहीं थे, इंद्रधनुष के कुछ बिखरे टुकड़े थे, जिनसे पूरा आसमान नापना चाहती थी। एक किनारे खड़े तुम और दूसरा किनारा मेरा, इस इंद्रधनुष के सहारे दूसरे किनारे पर, जैसे चिल्लाकर बोलती, "इतने किलोमीटर सुमित,'' तुम सुनने के बाद भी कान पर हाथ रख कर कहते "क्याSSSSSSSS?"
जाने तुम्हारी बड़ी दीदी, मेरी प्यारी, मिताली दीदी भी कहाँ होंगी आज कल? उनकी कितनी याद आती है। अब, ये मत पूछने लगना कि इतनी सारी यादों के बीच तुम्हारी नहीं आती क्या? तुम हो ही ऐसे रास्ते के रोड़े जैसे, जब भी निकलती हूँ इधर से, कभी अनजाने और हाँ ज़्यादातर जान बूझकर तुमसे चोट खाकर गिरना आदत-सा बन गया है, और कितनी बार गिराओगे अभी? खेलते-खेलते धक्का देकर गिराना तो आदत थी ही तुम्हारी, पर फिर भागते क्यों थे, भगोड़े, डरपोक, अभी भी गुस्सा ही आता है तुम्हारे ऊपर, मेरी कितनी नई फ्राकें गंदी कीं तुमने, खेलना कभी आया नहीं तुम्हें बस लड़ाई करना आता था। पर लड़ाई करने की आदत यों भूल कैसे गए तुम, एक बार और लड़ नहीं सकते थे, जैसे मैं लड़ रही हूँ। दीवारों से लड़ाई अपने टूटे हाथों, पंखों के बाद भी, किसी खिड़की के खुलने की आशा में नही, बस एक ठंडे हवा के झोंके के इंतज़ार में, नए पक्षियों के लिए आशा का दीप जलाती, कहीं भूल ही ना जाएँ ये नए पक्षी युद्ध लड़ना. . .
सुना था मिताली दीदी की शादी हो रही है, पर मैं जा नहीं पाई। इन्हें बहुत काम रहता है। मुझे? मुझे तो कोई ख़ास काम नहीं घर में, पर माता जी को देखने वाला कोई तो चाहिए। अब ये मत कहना की सेठानी बनी बैठी रहती हूँ, ख़ैर बैठी तो रहती ही हूँ पर सेठानी नहीं डाक्टरनी बनी। दाँत निकालो और कहो फिर तो दिन रात बीमार ही बनी रहती होगी।
यहाँ पर भी सब अच्छे हैं। सुधा, इनकी छोटी बहन, का इस बार बी.एड. है, माता जी की पूजा में मैं भी बैठने लगी हूँ, अब ये मत कहना की पुरी भक्तिन ना बन जाना, तुम ये हर बात से नई बात क्यों गढ़ने लगते थे। नया घर अच्छी जगह लिया है इन्होंने, आस-पास अच्छे लोग हैं। ये तो ख़ैर इन्होंने ही बताया, मैं तो कहीं नहीं जा पाती। पता नहीं क्यों पर मुझे लगता है, जैसे इस घर की दीवारें बहुत ऊँची हैं, ठीक जैसे पुराने घर की थीं, जैसे मेरे घर की थीं, जैसे तुमने कभी कहा नहीं पर तुम्हारे घर की थीं, तुम भागते क्यों रहे सच से हमेशा। सुधा से भी मैंने पूछा एक दिन की क्या ये दीवारें हमेशा से ही ऐसी ही ऊँची रही हैं, उस पुराने घर में मैं तो नई ही थी, उसने भी वही कहा जो मुझे अपने घर के बारे में लगता था, सच क्या है कौन जाने? इतने मुखौटों के बीच असली चेहरे कहाँ है, कौन जाने? वो भी मेरी तरह जान ही नहीं पाई की दीवारें रातों-रात इतनी ऊँची हुईं कब, कैसे? मज़बूत हैं. . .इतना आभास तो उसे भी रहा बचपन से, मेरी तरह, सड़क तक पार करने में बाबू की छंगुनिया के रूप मे, शाम कभी देर से आने पर माँ की डाँट बन, और जाने कहाँ-कहाँ।
सच, ऊँची दीवारों में रहती हूँ ये मुझे अपने घर में कहाँ पता था। उन दिनों जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, और तुम शहर के होस्टल वाले स्कूल में, दिखती नहीं थी शायद ऊँचाई, रही ज़रूर होगी, मेरे बिना जाने तो कभी कुछ वहाँ बनवाया भी नहीं गया। पता नहीं शायद मैं सो रही होऊँ और रातों-रात दीवारें ऊँची हो गई हों। हँसो मत, मुसकाते तो ज़रूर रहे होंगे तुम, सुधर नहीं सकते तुम, कहीं भी रहो। सच कह रही हूँ, कभी जाना ही नहीं, कब मैं बढ़ती गई और वो दीवारें भी तो बढ़ ही रही थीं साथ-साथ ही। मेरा बढ़ना कुछ पसंद-सा नहीं आया इन दीवारों को शायद, पर जाने जो अपनी-सी लगती रहीं, जिन पर मैंने खुद पेंटिग्स बना-बना कर सजावट की, झाड़ू मार-मार कर सफ़ाई की, सजाया, जो मुझे धूप से, ठंड से बचाती रहीं, वही दीवारें धीरे-धीरे मेरे बिना जाने यों इतनी ऊँची, कैसे, क्यों होती गईं. . .
कई दिनों से देख रही हूँ ये मिट्ठू बहुत परेशान-सा है। अब ये मत पूछ्ने लगना कि ये मिट्ठू कौन, नहीं तो समझ लो. . ., अरे वो हरियल जो मिताली दीदी ने दिया था मुझे, हरियल को यहाँ साथ ही लाई थी, बताया भी तो था तुमको, और तुम ग़ुस्से में चले गए थे बाहर। भूल गए भुलक्कड़. . .हाँ इन्हें कुछ हरियल नाम पसंद नहीं आया। इन्होंने कहा, तो मुझे भी लगने लगा कि हरियल कुछ गँवार-सा नाम है, शहर का नाम, मिट्ठू, अच्छा है ना। पर फिर लगता है कि, नाम बदल गया ये उसे क्या पता, लगता है कि उसे इससे भी कोई फ़र्क नही पड़ता कि उसका कोई नाम भी है। गाँव में रहे तो हरियल शहर में रहे तो मिट्ठू, पर रहेगा तो पिंजरे के ही भीतर, जो हम खाने को देंगे वही तो खाएगा ना। और उड़ना चाहे तो उड़ेगा कैसे, पिंजरा जो है। इसे आज कल जाने क्या हो गया है, इतने पंख फड़फड़ाता है, जैसे लड़ रहा हो किसी से, चाहे जो खाने को दो सुनता ही नहीं कुछ, इसका पिंजरा छोटा है शायद। अभी कुछ दिन पहले छत पर लेकर चली गई थी इसे शायद आसमान देख लिए इसने भी, अब रह नही पा रहा है, इसकी ऊँची-ऊँची, पिंजरे की दीवारें छोटी पड़ रही हैं शायद, काटने को दौड़ती हैं जैसे इसे, बस खुशी इस बात की है, खुद लड़ना भूला नहीं, रोता नहीं अपनी कैद पर, हार नहीं मानी इसने। अब कैसे पूछूँ इससे इसकी भाषा भी तो नहीं आती। तुम्हें आती है? तुम्हें क्या आती होगी, आती होती तो. . .
जाने आज क्यों वो सब याद आ रहा है, हमारा घर, उससे बस 3 गलियाँ दूर तुम्हारा घर, मिताली दीदी, तुम, चाचा जी, चाची, माँ, पिता जी, बुआ और भी बाकी सारे भी। और हाँ वो मैथ के सर क्या नाम था. . .हाँ, मिश्रा जी, वो जाने कैसे होंगे। सच पूछो तो ऐसे कितने लोग हैं जिनकी याद आनी चाहिए पर नहीं आती। मिश्रा सर का वो चेहरा तो अभी तक याद है, जब कितनी खुशी से वो पिता जी को बता रहे थे कि मैं मैथ्स में बहुत तेज़ हो गई हूँ और मुझे बी.एस.सी. करनी ही चाहिए, पर पिता जी का कहना था क्या करेगी, इसकी तो शादी की बात भी चल ही रही है।
अच्छा उन गोष्ठियों की एक-एक बात समझाने में मुझे कितना समय लगता थ, और तुम कैसे चढ़ाते थे मुझे, दुष्ट कहीं के। याद है, कैसे हिमांशु जी ने वो कविता सुनाई थी, और फिर कहा था, "देश मे प्रेम सर्वाधिक प्राचीन और हाँ साथ ही सर्वाधिक उपेक्षित विषय है, घर-बाहर कितना अंतर आ जाता है, इसके बारे में सोचने में, पढ़ तो सकते हैं, पर कर नहीं सकते, स्वीकार नहीं कर सकते, करता देख नहीं सकते। जिसने किया वो मानने से कतराता है, किसी और को देख उँगलियाँ भी उठाता है। और जाने कितने पड़े हैं जो कभी स्वीकार ही नहीं करते प्रेम, सफ़ाई में बच्चन की बातें, "प्रेम किसी से करना लेकिन करके उसे बताना क्या, झूठे, कपटी।'' उन दिनों कैसे हम परदे के पीछे से सुनते रहते थे ये बातें, बाहर कौन जाए बाप रे, चाचा जी के ग़ुस्से से तो अब भी डर ही लगता है। मेरे बाबू उनके इतने जिगरी दोस्त न होते तो मेरी ही क्या मजाल की मैं तुम्हारे घर आ भी सकती, और तुम भी इतने घर घुस्सू कहीं के, कि कहीं जाते क्यों नही थे। फिर चले गए हॉस्टल अपनी पढ़ाई करने, और अब. . .अब तो।
पता नहीं, अभी भी उनकी वो कविता मंडली वैसी ही है या अब कम हो गई? कितनी कविताएँ सुनी हैं हमने वहाँ। पराग जी, हिमांशु जी, अजय भैया सब अपने में मस्त ही होंगे? उनकी कविताओं की याद अभी भी आती है, कितनी बार इन लोगों की कविताएँ सुन कर बस मन में नए-नए अर्थ दुहराती, नई-नई कल्पनाएँ जोड़ती घर लौटती थी। अब लगता है वो सिर्फ़ अर्थ नहीं थे, इंद्रधनुष के कुछ बिखरे टुकड़े थे, जिनसे पूरा आसमान नापना चाहती थी। एक किनारे खड़े तुम और दूसरा किनारा मेरा, इस इंद्रधनुष के सहारे दूसरे किनारे पर, जैसे चिल्लाकर बोलती, "इतने किलोमीटर सुमित,'' तुम सुनने के बाद भी कान पर हाथ रख कर कहते "क्याSSSSSSSS?"
जाने तुम्हारी बड़ी दीदी, मेरी प्यारी, मिताली दीदी भी कहाँ होंगी आज कल? उनकी कितनी याद आती है। अब, ये मत पूछने लगना कि इतनी सारी यादों के बीच तुम्हारी नहीं आती क्या? तुम हो ही ऐसे रास्ते के रोड़े जैसे, जब भी निकलती हूँ इधर से, कभी अनजाने और हाँ ज़्यादातर जान बूझकर तुमसे चोट खाकर गिरना आदत-सा बन गया है, और कितनी बार गिराओगे अभी? खेलते-खेलते धक्का देकर गिराना तो आदत थी ही तुम्हारी, पर फिर भागते क्यों थे, भगोड़े, डरपोक, अभी भी गुस्सा ही आता है तुम्हारे ऊपर, मेरी कितनी नई फ्राकें गंदी कीं तुमने, खेलना कभी आया नहीं तुम्हें बस लड़ाई करना आता था। पर लड़ाई करने की आदत यों भूल कैसे गए तुम, एक बार और लड़ नहीं सकते थे, जैसे मैं लड़ रही हूँ। दीवारों से लड़ाई अपने टूटे हाथों, पंखों के बाद भी, किसी खिड़की के खुलने की आशा में नही, बस एक ठंडे हवा के झोंके के इंतज़ार में, नए पक्षियों के लिए आशा का दीप जलाती, कहीं भूल ही ना जाएँ ये नए पक्षी युद्ध लड़ना. . .
सुना था मिताली दीदी की शादी हो रही है, पर मैं जा नहीं पाई। इन्हें बहुत काम रहता है। मुझे? मुझे तो कोई ख़ास काम नहीं घर में, पर माता जी को देखने वाला कोई तो चाहिए। अब ये मत कहना की सेठानी बनी बैठी रहती हूँ, ख़ैर बैठी तो रहती ही हूँ पर सेठानी नहीं डाक्टरनी बनी। दाँत निकालो और कहो फिर तो दिन रात बीमार ही बनी रहती होगी।
यहाँ पर भी सब अच्छे हैं। सुधा, इनकी छोटी बहन, का इस बार बी.एड. है, माता जी की पूजा में मैं भी बैठने लगी हूँ, अब ये मत कहना की पुरी भक्तिन ना बन जाना, तुम ये हर बात से नई बात क्यों गढ़ने लगते थे। नया घर अच्छी जगह लिया है इन्होंने, आस-पास अच्छे लोग हैं। ये तो ख़ैर इन्होंने ही बताया, मैं तो कहीं नहीं जा पाती। पता नहीं क्यों पर मुझे लगता है, जैसे इस घर की दीवारें बहुत ऊँची हैं, ठीक जैसे पुराने घर की थीं, जैसे मेरे घर की थीं, जैसे तुमने कभी कहा नहीं पर तुम्हारे घर की थीं, तुम भागते क्यों रहे सच से हमेशा। सुधा से भी मैंने पूछा एक दिन की क्या ये दीवारें हमेशा से ही ऐसी ही ऊँची रही हैं, उस पुराने घर में मैं तो नई ही थी, उसने भी वही कहा जो मुझे अपने घर के बारे में लगता था, सच क्या है कौन जाने? इतने मुखौटों के बीच असली चेहरे कहाँ है, कौन जाने? वो भी मेरी तरह जान ही नहीं पाई की दीवारें रातों-रात इतनी ऊँची हुईं कब, कैसे? मज़बूत हैं. . .इतना आभास तो उसे भी रहा बचपन से, मेरी तरह, सड़क तक पार करने में बाबू की छंगुनिया के रूप मे, शाम कभी देर से आने पर माँ की डाँट बन, और जाने कहाँ-कहाँ।
सच, ऊँची दीवारों में रहती हूँ ये मुझे अपने घर में कहाँ पता था। उन दिनों जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, और तुम शहर के होस्टल वाले स्कूल में, दिखती नहीं थी शायद ऊँचाई, रही ज़रूर होगी, मेरे बिना जाने तो कभी कुछ वहाँ बनवाया भी नहीं गया। पता नहीं शायद मैं सो रही होऊँ और रातों-रात दीवारें ऊँची हो गई हों। हँसो मत, मुसकाते तो ज़रूर रहे होंगे तुम, सुधर नहीं सकते तुम, कहीं भी रहो। सच कह रही हूँ, कभी जाना ही नहीं, कब मैं बढ़ती गई और वो दीवारें भी तो बढ़ ही रही थीं साथ-साथ ही। मेरा बढ़ना कुछ पसंद-सा नहीं आया इन दीवारों को शायद, पर जाने जो अपनी-सी लगती रहीं, जिन पर मैंने खुद पेंटिग्स बना-बना कर सजावट की, झाड़ू मार-मार कर सफ़ाई की, सजाया, जो मुझे धूप से, ठंड से बचाती रहीं, वही दीवारें धीरे-धीरे मेरे बिना जाने यों इतनी ऊँची, कैसे, क्यों होती गईं. . .
कई दिनों से देख रही हूँ ये मिट्ठू बहुत परेशान-सा है। अब ये मत पूछ्ने लगना कि ये मिट्ठू कौन, नहीं तो समझ लो. . ., अरे वो हरियल जो मिताली दीदी ने दिया था मुझे, हरियल को यहाँ साथ ही लाई थी, बताया भी तो था तुमको, और तुम ग़ुस्से में चले गए थे बाहर। भूल गए भुलक्कड़. . .हाँ इन्हें कुछ हरियल नाम पसंद नहीं आया। इन्होंने कहा, तो मुझे भी लगने लगा कि हरियल कुछ गँवार-सा नाम है, शहर का नाम, मिट्ठू, अच्छा है ना। पर फिर लगता है कि, नाम बदल गया ये उसे क्या पता, लगता है कि उसे इससे भी कोई फ़र्क नही पड़ता कि उसका कोई नाम भी है। गाँव में रहे तो हरियल शहर में रहे तो मिट्ठू, पर रहेगा तो पिंजरे के ही भीतर, जो हम खाने को देंगे वही तो खाएगा ना। और उड़ना चाहे तो उड़ेगा कैसे, पिंजरा जो है। इसे आज कल जाने क्या हो गया है, इतने पंख फड़फड़ाता है, जैसे लड़ रहा हो किसी से, चाहे जो खाने को दो सुनता ही नहीं कुछ, इसका पिंजरा छोटा है शायद। अभी कुछ दिन पहले छत पर लेकर चली गई थी इसे शायद आसमान देख लिए इसने भी, अब रह नही पा रहा है, इसकी ऊँची-ऊँची, पिंजरे की दीवारें छोटी पड़ रही हैं शायद, काटने को दौड़ती हैं जैसे इसे, बस खुशी इस बात की है, खुद लड़ना भूला नहीं, रोता नहीं अपनी कैद पर, हार नहीं मानी इसने। अब कैसे पूछूँ इससे इसकी भाषा भी तो नहीं आती। तुम्हें आती है? तुम्हें क्या आती होगी, आती होती तो. . .
जाने आज क्यों वो सब याद आ रहा है, हमारा घर, उससे बस 3 गलियाँ दूर तुम्हारा घर, मिताली दीदी, तुम, चाचा जी, चाची, माँ, पिता जी, बुआ और भी बाकी सारे भी। और हाँ वो मैथ के सर क्या नाम था. . .हाँ, मिश्रा जी, वो जाने कैसे होंगे। सच पूछो तो ऐसे कितने लोग हैं जिनकी याद आनी चाहिए पर नहीं आती। मिश्रा सर का वो चेहरा तो अभी तक याद है, जब कितनी खुशी से वो पिता जी को बता रहे थे कि मैं मैथ्स में बहुत तेज़ हो गई हूँ और मुझे बी.एस.सी. करनी ही चाहिए, पर पिता जी का कहना था क्या करेगी, इसकी तो शादी की बात भी चल ही रही है।
थोड़ा आसमान उसका अपना - 1
सुमित,हमेशा की तरह, मैं खुश ही हूँ, तुम कैसे हो? कितने दिन हो गए तुमसे मिले। तुम्हारा क्या है, तुम तो अब भी वैसे ही कहते होगे सबसे बड़ी शान के साथ, "कविता, मैं किसी को याद नहीं रख सकता! तुम तो एकदम याद नहीं आतीं, मैं तो हूँ ही ऐसा।" पर मैं जानती हूँ तुम कैसे हो। ऐसा है ज़्यादा हाँकने की कोशिश मत किया करो। जैसे हो वैसे ही रहो तो अच्छा। अभी तो तुमने ऐसी दीवार उठा दी है कि तुमसे मिलना, पहले के जैसा ही हो चला है, पहले कम से कम एक आशा तो रहती थी कि तुम दिखोगे, अब तो तुमने वो भी गिरा ही दी है।
क्यों किया तुमने ऐसा, क्या और कोई रास्ता नहीं था, जिस तरह मैं चल रही हूँ, तुम क्यों नही चल पाए। "क्या जो बीत गई सो बात गई" का पाठ स्कूल में बस मैंने पढ़ा था, सुनाते तो बहुत शान से थे तुम, जैसे सब समझ रहे हो, "अंबर में एक सितारा था माना वो बेहद प्यारा था", कहते-कहते कैसे तुम धीरे से देखते थे आँखों से हँस देते थे, मुझे लगता मैं हरी दूब पर सुबह सुबह नंगे पाँव चल रही हूँ, ताज़ी ठंडी हवा के बीच, ठंड से लिपटी, खुशबू मे डूबी, फूलों से भरे गुलदान-सी शरम से लकदक!! अब कहो कुछ, अब तो अच्छा लिखने लगी हूँ ना. . .
क्यों किया तुमने ऐसा, क्या और कोई रास्ता नहीं था, जिस तरह मैं चल रही हूँ, तुम क्यों नही चल पाए। "क्या जो बीत गई सो बात गई" का पाठ स्कूल में बस मैंने पढ़ा था, सुनाते तो बहुत शान से थे तुम, जैसे सब समझ रहे हो, "अंबर में एक सितारा था माना वो बेहद प्यारा था", कहते-कहते कैसे तुम धीरे से देखते थे आँखों से हँस देते थे, मुझे लगता मैं हरी दूब पर सुबह सुबह नंगे पाँव चल रही हूँ, ताज़ी ठंडी हवा के बीच, ठंड से लिपटी, खुशबू मे डूबी, फूलों से भरे गुलदान-सी शरम से लकदक!! अब कहो कुछ, अब तो अच्छा लिखने लगी हूँ ना. . .
Wednesday, March 7, 2007
मेरा गांव, पड़री कलां, उन्नाव, उत्तर प्रदेश
पूछ्ने पर पता चला कि आपका नाम मेवालाल है । फ़िर सलाह मिली कि "ट्यूबबेल मा नहाओ तो हैदराबाद भूलि जैहॊ" । फ़ोटो खिंचवाने के लिये काम करते ही ले लो...बिजी हैं । बहरहाल ये दिन होली का है..दोपहर भी होली की ही.
"यह हॊदी थोरी नीची अऊ छोटि रहि गै है"....बप्पा उवाच। "ह्म्म्म्म, यहॆ हमहू कहे वाले रहन..", दर्शक रिप्लाइड।
"यह हॊदी थोरी नीची अऊ छोटि रहि गै है"....बप्पा उवाच। "ह्म्म्म्म, यहॆ हमहू कहे वाले रहन..", दर्शक रिप्लाइड।
सिपाही....
झाड़ झंखाड़......
झाड़ झंखाड़......
गांव के बाहर खेड़ा.....
ये लो दूसरा......
नहरिया आयी है......
पानी हियॊं भरि होई.....
ये सरकारी फ़िर भी असरकारी तालाब.....
सरकारी चीज है...दो बार नहीं आ सकती क्या....
कुक्कू नरेश और दादा.......
यह वो जगह जिसने ठाकुर तालाब को पुनः आबाद किया....
ये साहब इशारा कर रहे हैं, और इशारे का परिणाम उपर की फोटो......"यहकी लेऒ..यहि ते भरा है सब, तालम पानी.."
ये अपने दादा(चश्मे और इश्टाइल वाले) और राजू चाचा(दाढी और भोकाल वाले)....
पुनः....पर अधूरे....
ये अपने दादा(चश्मे और इश्टाइल वाले) और राजू चाचा(दाढी और भोकाल वाले)....
पुनः....पर अधूरे....
हवाई यात्रा करने वालों (शोहरत, पैसे और चकाचौन्ध पर बात करते हुये केवल फ़िल्मी बातें झाड़ने वालों), यह बैलगाड़ी है । बैलों के द्वारा खींचे जाने के कारण यह बैलगाड़ी कहलाती है । इसका यह जो हिस्सा आप देख रहे है, इस पर बैलगाड़ी का ड्राइवर(पाइलट भी चलेगा) भी बॆठता है, और बाकीयों को भी बैठा लेता है...जाने कैसे?
(फोटो इसलिये क्योंकि गांवों मे भी एक दुर्लभ वस्तु है, बैलगाड़ी...चलती दिखे कहीं तो एक फोटू हमे जरूर भेजें)
Tuesday, February 13, 2007
छपास दबा पाना मुश्किल है...
सम्प्रति शून्य
अनुग्रहित आकंठ
विस्मित भ्रांत हूं
हूं चकित आलोक
तम हित रम रहे
अनुबंध गर्हित
रवि रश्मियां
मधुतप्त भीषण
हैं कहीं , क्या बच रहीं?(अब भी?)
काल कज्जल कूट
श्यामल अनाव्रत वक्ष
अचल यॊवन युगल
मदसिक्त कटि
शतदल मुक्त्कुन्तावलि
मदघूर्णित रक्तिम
सकल ब्रम्हान्ड
मूर्छित (वह भी यह भी..आश्चर्य?)
माया..
धर्म हित रत योजना
शिशु जीवन अरक्षित
मंगल प्राकृतिक
चिरमानवी इच्छा...
विकराल
हुयी स्वीक्रत...... (अब ही कब तक?)
कुछ प्रश्न
उत्त्तर सम्प्रति शून्य.....
अगम्य अचल अकथ्य शून्य...
गर ना समझे हो मियां तुम : यह कविता निठारी पर भी है और साथ ही नैसर्गिक, पवित्र, आदिम इच्छा के उन्मुक्त रथ के भटकते पथ पर अग्रसर होने पर भी ।
साभार: आचार्य चतुरसेन रचित वयं रक्षाम: की हिन्द पाकेट बुक्स प्रकाशन का अंतिम पृष्ठ । हिन्दी युग्म पर आलोक शंकर की कविता http://merekavimitra.blogspot.com/2007/02/blog-post_12.html तथा उस पर की गयी मेरी टिप्पणी ।
Saturday, February 3, 2007
वह कौन है ?
वह कौन है जो विश्व को तकली सा नचाता
माँ बन के जन्म देता पिता बन के पालता
बाल बढ़ाये कपड़े गन्दे
होंठों पर मुस्कान सजाये
दुनिया के कोरे कागज पर
अपनी जादू की कूंची ले
सतरंगी जीवन रचता जाता
कान्हा बन कोरी राधा का आंचल छू जाता
होंठों पर खुशबू, आंखों में सपनो सा काजल भर जाता
जन्म नहीं पालन भी जग का
कभी खेत में फ़सलें बनकर
शीतल मंद हवाओं में भी वह
सारी गति यति गीतों में वह
है कौन वो जो अंधियारों में दीपक बन आता
तुम मे है रचा बसा हां सच बस तुम सा
बाहर भी बस, यहीं सब कहीं, मुझमे उसमें
रक्तिम नयनों से कभी विश्व पर ज्वलामुखी सजाता
जीवन का ही नही मृत्यु का भी नृत्य दिखाता
है कौन वो जो विश्व को तकली सा नचाता ?
माँ बन के जन्म देता पिता बन के पालता
बाल बढ़ाये कपड़े गन्दे
होंठों पर मुस्कान सजाये
दुनिया के कोरे कागज पर
अपनी जादू की कूंची ले
सतरंगी जीवन रचता जाता
कान्हा बन कोरी राधा का आंचल छू जाता
होंठों पर खुशबू, आंखों में सपनो सा काजल भर जाता
जन्म नहीं पालन भी जग का
कभी खेत में फ़सलें बनकर
शीतल मंद हवाओं में भी वह
सारी गति यति गीतों में वह
है कौन वो जो अंधियारों में दीपक बन आता
तुम मे है रचा बसा हां सच बस तुम सा
बाहर भी बस, यहीं सब कहीं, मुझमे उसमें
रक्तिम नयनों से कभी विश्व पर ज्वलामुखी सजाता
जीवन का ही नही मृत्यु का भी नृत्य दिखाता
है कौन वो जो विश्व को तकली सा नचाता ?
Friday, January 26, 2007
एक मशीन बची है
उसकी वो
उसकी
इस नदी के किनारे
जाने कब से
राह तकती वो
वापस नही गयी
नदी बन आज भी बहती है ।
***************************************************
अंधेरा
अंधेरा
अंधेरा हुआ
झींगुर लगे रोने
जुगनु चमकने
**************************************************
खुशबू
खुशबू
पूरी ना उड़ जाये कहीं
डर से तुमने
शीशी इत्र की झट से
बस एक बूंद बिखेर
बन्द कर ली
बाग के खिले फ़ूल को कोई डर क्यों नहीं ?
**************************************************
उसका कहा
ऊंची खिड़की का एक पट खोल
झांक, उसने
आवाज़ और आंसू दोनो दबाते कहा
जानते हो मेरे घर में
तुम्हारे लिये
बस ये खिड़की ही खुली है
दरवाजे नहीं
उनके तालों की चाभी
तो तुमने वहां उतने नीचे
होते ही गवां दी ।
***************************************************
मशीन
कविता, कहानी, उपन्यास और व्यंग
लिखे, जोड़े
और तालियों के सपनों मे सो गया
कुछ और नहीं बस
एक और कवि मरा पड़ा है
शब्दों का जाल बुनती मकडी और
एक मशीन बची है
Monday, January 22, 2007
हे महाप्राण !
मुझसे निराला की एक कविता नहीं पढी गयी । ये जानते हुये भी की हिंदी के बड़े कवि थे । बस एक बचपन मे पांचवें की हिंदी की किताब मे सरस्वती वंदना के तौर पर लिखी, 'वर दे वीणा वादिनी वर दे', वो और हां वो 'वह तोड़ती पत्थर' । पर एक और बात की शुरुआत मे भली भली सी दिखने वाली ये कवितायें अंत तक आते आते भयावह हो जाती थीं, और हम यही मनाते थे कि इंम्तिहान मे ये न आवे बस । निराला एक विशेष पाठकीय अनुशासन की मांग करते थे, जो था नहीं । और फ़िर हिंदी से जैसे तैसे पल्ला छूड़्वा ही लिया । उनकी कवितायें निराला पार्क मे लगी उनकी प्रतिमा (सर भर था और बाकी नीचे वही सब जो यहां मिल सकता है), हां तो उनकी प्रतिमा के इर्द गिर्द खेलते हुये हमने ये जरूर सुना था की, बड़े कवि थे, और आज कहने मे कोइ झिझक भी नहीं कि कई बार मिलान भी किया था, खेल कूद कर थक चुकने के बाद कि, क्या इन्होने ही वर दे वीणा वादिनि वर दे लिखी होगी कभी, लिखी तो हिंदी मे कविता लिखी ही क्यों ?
उन्नाव शहर (जहां गढाकोला है, निराला का पैत्रक गांव और जहां कचौड़ी गली है, निराला जहां रहा करते थे) मे दो-तीन जगह निराला मिल ही जाते है, आज भी । निराला पार्क मे निराला, कचॊड़ी गली के सामने(मूर्ति अनावरण के इंतजार में) निराला, निराला प्रेक्षाग्रह के मैदान मे बुत बने निराला और राजकीय पुस्तकालय मे घुसते ही सामने खड़े दढियल और लम्बे बालों वाले निराला । इसके अलावा निराला और कहीं मिल जायें तो इसे मात्र एक संयोग कहा जायेगा, लेखक की इस जानकारी पर कोई खास गारंटी नहीं ।
हां एक और बुत था जिसे हम कफ़ी समय तक निराला का ही समझते रहे, कई सालों तक उसका बोरका नहीं उतरा तो तांक झांक कर देखते रहे, फ़िर जब "सह धूप घाम पानी पत्थर", चल नहीं पाया बेचारा बोरका तो नीचे लगे पत्थर ने राज़ खोला कि थे तो निराला ही पर अब कहे कोई माई का लाल कि कॊन है, तो पुरे १०० रुपये का पत्ता इनाम ।
अरे हां एक महाविद्यालय है, नाम भले ही कुछ हो, हम उसे बस "निराला" नाम से जानते हैं, जिसकी महिमा ये कि परीक्षा काल मे "बैच बैच" का दारुण क्रन्दन सुन आंसुओं से झीलें, ताल, तलैया नहीं भरते वरन पुस्तकों से झॊवे भर जाते हैं । जो पाठक ना जानते हों उनके लिये, झॊवा अर्थात एक विशेष प्रकार का लकड़ी का टोकरा, जिनका मुख्यत: प्रयोग गोबर ढोने मे किया जाता है । इसका अर्थ कदापि यह न लगायें कि कदाचित गोबर कम हो गया, उन्नव सहर मे सो किताबें ढोई जा रहीं । अस्सल बात ये कि "निराला" विद्यालय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (ये इसलिये लिखा की पाठक जान सकें कि लेखक पूरा नाम भी जानता है, कोई कच्चा, नौसिखिया नहीं है) की भांति "आम जनता के हित" की सोंच प्रति वर्ष ढेड़-दो सॊ स्नातक और परास्नातक पैदा करने हेतु कटिबद्ध है ।
निराला उपेक्षित नहीं हैं, हर साल बसंत पंचमी के अगले दिन का अखबार उन्नाव के पन्ने पर किनारे किसी ना किसी गोष्ठी की खबर छापता जरूर है । इतिहास बेदम कर देता है, खुद को पढा-पढा कर भी और अपेक्षाओं से भी, और उपर से तुर्रा ये कि "सीख हम बीते युगों से नये युग का करें स्वागत" । क्यों भाई ऐसा क्या धरा है कि बीते युगों से ही सीखा जाये.....निराला कचॊड़ी गली मे भटकते पाये जाते थे, आज भी उधरिच कहीं पड़े होंगे ।
हे निराला आप भाग्यशाली हैं कि कम से कम अखबार का एक कोना तो आपकॊ नसीब है । उसी कचॊड़ी गली की तरह गलियां और गढाकोला की तरह जाने कितने गांव उन्नाव ही नहीं भारत मे ऐसे भी हैं जहां रोज कोई ना कोई निराला और उसकी सरोज अंजान मर जाने के लिये अभिशप्त है । रोज कोई परिमल और रोज कोई सरोज स्मृति घुट रही है । क्यों ? हे महाप्राण, मेरे पास आज इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं कि हिंदी बोलने वाले हिंदी पढते क्यों नहीं, और क्यो पढे अगर हिंदी बाजार से लड़ नहीं पा रही ? महाप्राण क्षमा करें मैं जो खुद को आपके शहर उन्नाव का कह्ता हूं, पर यह बस खोखले गर्व की बात भर है मेरे लिये । मैं आज का युवा हूं, आज तक आपकी कवितायें नहीं पढ सका हूं, और पढूंगा भी तो समझ पाऊंगा कोई भरोसा नहीं, हे आम जनता के कवि मुझे खुद को बाजार मे आगे देखना है, तुम्हे पढ्कर कोई फ़ायदा नहीं । हां तुम बुत बने खडे रहना घर आऊंगा तो तुम्हे देख प्रणाम तो करूंगा ही.....
Sunday, January 21, 2007
आओ अब कुछ नया लिखो
छोंड़ धूप का कोट, छांव की पतली शर्ट पहन
ढीला पैजामा सपनों का ,हैट रसीली पुरवा
करे कभी मुस्कान कबड्ड़ी होंठों पर
मन में तो दिन भर ही उधम मचाती हो
मस्ती का एक धूप-छांव का चश्मा ले लो
दोस्त आज कुछ अलग दिखो
आओ अब कुछ नया लिखो
मटमैले मैदानों मे धूसर
जाने कितनी भागम भागी
मन भर मारो हाई जम्प
और नयी कोई चोटी छू लो,
चुन लो सागर से मदहोशी
पागल लहरों से प्रलय सीख लो
दोस्त आज यह सोम चखो
आओ अब कुछ नया लिखो
बहुत हुआ आंखों का झीलों सा,
होन्ठों का मूंगे सा दिखना
खुश होना ताली दे हंसना
थाली ही में चांद देखना
आंखें मीठी रसगुल्ले सी,
होंठ मिर्च से तीखे देखो
छोंड़ो, मोड़ो, बदलो, तोड़ो
जी टी रोड़ जो हुयी पुरानी आज नयी पगड़ंड़ी पकड़ो
और चांद को खींच गली मे
डोर फ़ंसा कुछ देर घसीटो
आओ कुछ तो नया लिखो
Friday, January 19, 2007
एक कहानी होना चाहती है । -३
(जब काफ़ी देर तक नारद बाबा ने दिखाया ही नहीं, भाग २ का लिंक तो अपना लिखा जबरिया पढ़वाने का इससे सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ तरीका और कुछ मिला नही, कोई भी पाठक आहत हुआ हो, तो खुदा राहत दे)
http://upasthit.blogspot.com/2007/01/blog-post_13.html
http://upasthit.blogspot.com/2007/01/blog-post_13.html
एक कहानी होना चाहती है । - भाग २
(पेश-ए-खिदमत है ये बचा खुचा भाग, जो हो सकता पहले भाग से कहीं से भी जुड़ा न लगे, मेरी भुलक्कड़ लेखनी जिम्मेदार है....मुआफ़ी चाहूंगा)
कहानी जाड़ों मे भी न जड़ाने वाली हसीना की
जाड़ों मे भी न जड़ाने वाली हसीना कल रात थी । यहीं एयर्पोट, ३ डिग्री टेम्परेचर, सर पर गुलदान, चित्तीदार चश्मा, जैकेट कम फ़तुही ज्यादा, घुटनो की गोलायी से बस बलिश्त भर दूरी तक उटंगी जींस, बाकि ज़मीन तक, मेरी, औटो, टैक्सी और साथ खड़े अंकलों की चिपकी आंखें चिपकाये । बहरहाल बावारी नजरों का एक गैर जरूरी हिस्सा, अंशदान स्वरूप, उसके झुकने से पैदा की गयी, उठते टाँप, गिरती जींस के बीच किसी "कुछ" की सम्भावना पर भी, भरपूर । वैसे संभावनायें अंदर Air hostess की काफ़ी दूरी तक ऊपर की ओर खुली हुई स्कर्ट मे भी बस मुझे ही नहीं मिली होगी, ऐसा ख़याल है । फ़िर हुआ कुछ यूं की, खुदा मेहरबान तो गधा भी पेलवान । "आर यू आलसो गोइंग........ नोयडा", अब तो नोयडा ना भी जाना हो तो, "नो" ना निकले । आटो शेयर हुआ और रास्ते की हैरानी जाड़ों मे ना जड़ाने वाली हसीना के कुछ कुछ बहुत कुछ दिखते से परे, उसकी बच्चों सी हंसी पर ज्यादा । बच्चों की हंसी का कोइ कारण होता हो सकता क्या ?
कहानी लटकटे झोले झुकती कमरों की
झोला लटका था, कमरें झुकी थी, एक नहीं दो दो । एक झुकी कमर के हाथ मे झोला, कमर झुकाता, कदम लड़खड़वाता ही चला जा रहा था कि दूसरी झुकती कमर ने झोला छीन सा लिया और कुछ देर उठा खुद लड़खड़ाने लगी । फ़िर, वहीं एयर्पोर्ट की दीवाल से लगी सीट पर बैठे , भीड़ से दूर, भीड़ मे कहानी खोजते दिखा कि अब दोनो कमरें बराबर, नार्मल लड़खड़ा रही थीं, झोला लटक नहीं रहा था, सधा, दोनो कमरों के हाथों मे । एक बध्धी-एक कमर वाली का हाथ, दूसरी बध्धी-दूसरी कमर वाले का हाथ । बूढे के गालों पर, बुढिया की आंखों मे हंसी थी, बस ।
कहानी फ़ेंकी किताब और इडीयट बच्चे की
वो जो उसकी माँ सी ही लग रही है, कहती है "ईडियट", और वो, उसके हांथों से किताब, छीन, जमीन पर फ़ेंक विरोध जताता है । वह उधर कहीं भाग जाता है, वह वहीं बैठी रहती है, थोठी देर किताब घूरती है, जैसे, "भाग गये उस इडियट" का कोइ हिस्सा उस किताब मे अभी भी है । हाथ झुक कर किताब बैग मे रख देते हैं, पर आंखें अभी भी "ईडियट" से गुस्से मे ही हैं, ढूंढ भी "ईडियट" को ही रही हैं । १० मिनट बाद आंखें, टांगों को सीधा करती हैं, और दूर तक "ईडियट" को देखती हैं, इधर-उधर, फ़िर से टांगों को टेढ़ा होने देती हैं, वापस कुर्सी पर । अब वही आखें ये झुठलाने कि पूरी कोशिश मे हैं, की उन्होने ही टांगों को सीधा करवाया था, कारण.... शायद ये कि "ईडियट" भीड़ से अलग गिफ़्टस की दुकान पर दिख गया ।
कहानी चिड़िया उड़, चमकती आंखों और बात की
नयी शादी हुयी हो और कोई इसे समझ ले बस देख कर, कोई खास बात नहीं । इस नियम से यह सिद्ध हुआ कि, मैंने कुछ खास नहीं किया, मुझे तो खैर वो दिखे ही नहीं, उसका उसके मोटे (मजबूत और मांसल भी गलत शब्द नहीं) कंधे पर धीरे-धीरे, प्यार में, फ़िरता मेहंदी लगा हाथ भी दिखा, तब तो क्या ही कोई बात हो सकती है । बच्चे जब Flight लेट हो तो चिड़िया उड़ खेलें इसमे भी क्या बात । हां पर, चिड़ियां उड़ मे बकरी के उड़ जाने के बाद, हाथ जोड़ मार खाती बहन के हाथ बचाने के तरीकों को देख, मेरी कहानी खोजू आंखों को मेहंदी लगी आँखें अगर हंसता देखें, कंधा सहलाता हाथ दो पल रुक जाये, और फ़िर खुद भी, आंखें चार हों हंसने लगें, क्या तब भी कोई बात नहीं ?
ऐसी फ़ुटकर और निहायत ही फ़र्जी कहानियां देख, कहानी और नया साल की बात नयन से सुनते ही मैं चौकन्ना हो जाता हूं । सुधीर से फोन पर हुयी बात याद आती है, अभी कुछ दिन पहले ।
"यार सोंच रहा हूं, एक कहानी नये साल पर लिखी जाये ।"
"हां हां लिखो लिखो..तो ?"
"तू बता, तू क्या सोंचता है, कैसी होनी चाहिये नये साल की कहानी ।"
"मैं क्या बताऊ यार, तू लिख लेता है, तू लिख यार, मैं क्या बता सकता हुं ।"
"अच्छा मैने सोंचा है कुछ, सुनाऊं ?"
"सुना ले भईये"
"देख, कहानी ये है की दो-तीन लौन्डे हैं, एक अपार्टमेंट मे रहते हैं, न्यू इयर पार्टी मे जा रहे हैं, ३१ दिसम्बर की रात ..."
"हूं, अपने ही आस पास की लिखोगे साले, फ़िर...."
"निकलते है बाहर तो बगल के घर से एक बुढ़ढ़े के रोने की आवाजें आ रही हैं, पता करते है तो बुढ़्ढे अंकल बताते हैं की, बेटा अमरीका मे है, और बुढिया बीमार है । अपने अल्लाह के बंदों मे से एक की गर्ल फ़्रेंड का बार बार काल आ रहा है, "कहां हो, कहां तक पहुंचे", उसका कुछ खास मन भी नहीं बुढ़्ढों के पचड़े मे पड़ने का । पर फ़िर भी बंदे पार्टी छोंड़ कर बुढ़िया को हास्पिटल पहुंचाते हैं, गर्ल फ़्रेंड वाला बंदा तो पूरे मन से रात भर बुढिया की तीमारदारी करता रहता हैं ये जान कर भी कि निधी नाराज हो चुकी है, और भाई लोग समझ जाते हैं की सच्ची न्यू इयर पार्टी क्या है ।",
उधर से थकी सी आवाज आती है, "क्या बे ये भी कोई कहानी हुई ?"
"हा बे सोंचा तो यही था, पर कहो तो अपने अल्लाह के बन्दों को पार्टी मे भेज दिया जाये"
मेरा इतना बोलना था कि, सुधीर खुद शुरु हो गया......
"और हां फ़िर हो भी क्या सकता है साले, बुढिया रात की बीमारी में मर जाती है, लौंडे लौट कर आते हैं और पछताते है, कि साला थोड़ी देर से चले गये होते तो बुढिया बच गयी होती । साले कलाकार की दुम, इससे ज्यादा और क्या सोंचेगा तू..... अच्छा तेरी अकल मे ये नहीं आया की, अंकल ही क्यों नही चले गये डाँक्टर बुलाने या काल ही कर ली होती हाँस्पिटल ?"
"हां बे ये बात तो सोंची ही नहीं, कोई नहीं, टांगें तोड़ दें उनकी, कहो तो लकवा मरवा देता हूं, ये भी कम लगे तो अंधा कर दूं । गायब ही ना कर दूं सीण से, केवल बुढिया को रखा जाये ।"
"नहीं बे बहुत नाटक हो जायेगा,.... हां ये कर सकता है की अंधी बुढिया बीमार हुयी तो अंकल किसी को बुलाने बाहर की ओर चले और फ़िसल कर गिर गये, पैर की हड्डी टूट गयी, अब ना वो चल सकते हैं न और कुछ कर सकते हैं सो रो रहे हैं और बुढिया तो बुखार मे मर ही रही है ।"
"साले.... ये किस एंगल से नाटक नहीं लग रहा है ?...."
इस सारी कहानी के नाटक सबित होने के गम ने १ मिनट की चुप्पी रही और इस बार सुधीर फ़िर शुरू हुआ ।
"अच्छा ये सुन,पुरानी कहानी से लौन्डों को काटो, एक बुढ्ढा एक बुढिया एक घर । बाकी कोई नहीं, रात आया एक चोर । कीमती सामान ढूंढने के बीच तिजोरी जैसी चीज मे चिठ्ठियां पाता है, दो, सुसाइड नोट, बुढ्ढे और बुढ़िया के अलग-अलग, दोनो जिन्दगी से परेशान एक दुसरे के नाम से चिठ्ठी छोंड़ कर मर रहे हैं, अलग अलग कमरों मे, ये बिना जाने के दुसरा भी मर रहा है।"
"सही बे सही.... पर माँ के..... नया साल किधर कू गया रे ?"
"ऎं.... नया साल, अच्छा हां कहानी तो उसी पर है, रुक-रुक सोंचने तो दे।"
थोड़ी देर की चुप्पी, सुधीर फ़िर शुरु हुआ .... "देख अभी मरे थोड़े ही हैं बूढा और बुढ़िया, पर चोर एक बार देख कर यही सोंचता है कि मर गये साले दोनो । चोर पहले पैसा ढूंढ़ता है, माल जेवर बहुत मिला, कटने की सोंचता है, और हाँ कहानी सुनायेगा, यही अपना ००७ जेम्स चोर । उसके अपने घर की हालत खराब है, गांव भी पैसा भेजना है, बीवी की फ़टी साड़ी और बच्चों के नंगे तन, उनका कबाड़ बीनना ये सब बार-बार दिखा, याद दिला । पर साब, आखीर मे साँच को आँच क्या, पैसा लेकर भागते हुये एक बार फ़िर नज़र पड जाती है बुढिया पर और चोर अपणे इन्साण होणे के फ़रज को निभाये है, हास्पिटल पहुंचा कर पैसे वैसे दे कर कट लेवे है, भारी सा , संतुष्ट सा मण लिये...हें हें हें हें । हां थोडी लास्ट मे फ़टका मार दे पोलिश कर दे.....देख ऐसा कुछ लिखियो...., हास्पिटल के बाहर निकलते ही आसमान में तारों की चमक बढ़ जाती है, एक सितारा फ़ट सा पड़ता है उसके ऊपर और छिटक कर हर कहीं सितारे ही सितारे, नया साल आ गया....आसमान मे आतिशबाजियॊं से लिखा, हास्पिटल के गार्ड से पढ़वाता है, उसे भी जेम्स की तरह पढ़ना कहां आता पर वो जानता है की ये नये साल के आने की खुशी है ।"
"जबरदस्त बे जबरदस्त....तु लिखना शुरु कर दे मेरे भाई ।"
"तू ही लिख भाई, जब लिख जाये पढाईयो एक बार, देखें तो साला, अपना स्क्रिप्ट अपना आईडिया लिखा हुआ कैसा लगता है ।"
अभी तक तो लिखी नहीं सुधीर कि कहानी पर यहां दिल्ली एयरपोर्ट पर अपने एयरक्राफ़्ट का इन्तजार करते हुये लगता है कि क्या कूड़ा कहानी है ? सिम्मी की बात याद आती है, जो इसे सुनने पर पूरे गुस्से मे फ़ट पड़ी थी, "नये साल का मतलब समझने भर के लिये किसी के सुसाइड नोट तक लिखने की जरूरत पड़ गयी वाह रे लेखक, नये साल की कहानी मे ...खैर । और क्या चूतियापा है के कोई ऐसा चोर होगा जो पैसे छोंड़ किसी को हास्पिटल पहुंचायेगा । फ़ालतू आदर्शवाद क्यॊं घुस आता है, बार बार, क्यों नहीं वो कहानी हो जो सच भी हो सकती हो, जो सच होती हो, जो आस पास हुयी हो, सकती हो, मसाला इतना जरूरी है क्या, भागना क्यों चाहते हो... सच्चाई से । लिखना मुझे नहीं आता पर कला या साहित्य रचना भगोड़ा बनने का नाम तो नहीं होता होगा ।"
सिम्मी का लेक्चर एक तरफ़ और अपनी कहानी लिखने की तड़प दुसरी तरफ़, और कहना ही क्या की, पलड़ा इसी का भारी । सो कहानी की खोज अब भी जारी है ।
पर फ़िर सोंचता हूं, इस दिल्ली एयरपोर्ट पर कल कैंसल हो चुकी और अब लेटातिलेट फ़्लाइटस का इंतजार करते टूरिस्टस के बीच नयन के कहे मुताबिक जगहों पर नजर चिपकाये रहने मे, उस सर पर गुलदान लिये, जाड़े मे भी ना जड़ाने वाली लड़्की के छोटे कपड़ों, तेज-मस्त हंसी मे, उस बच्चे के "ईड़ियट" होने मे, बूढे और बुढ़िया का झोले का बोझ साथ मिलकर उठाने मे, शायद उस Air hostess की काफ़ी दूरी तक ऊपर की ओर खुली हुई स्कर्ट मे, चिड़िया उड़ खेलते बच्चों की हंसी मे और हां, हर बात-बेबात नयी नवेली की मेरे साथ अनजानी सी ही सही पर साथ की हंसी मे कहानी है । कहानी है, कहां नहीं । हां, इन सबके होते भी नये साल की कहानी मे किसी को लकवा मरवाने, किसी की हड्डी तुड़वाने, किसी को जान से मार देने या सुसाइड नोट पढ़कर ही जेम्स की इन्सानियत जगाने की जरुरत है क्या.... ?
Tuesday, January 16, 2007
प्रेम पगे छंद
बहुत दिन हुये छुप छुप जीते
पल पल तेरा मन ही मन अलिंगन करते,
मानस कानन में भॊंरा बन
मैं भी कुछ मणिबन्ध लिखूं,
प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।
गति, यति, लय, और शब्द शक्ति से
आग्नि शिखा से तेरे तन पर,
धैर्य्य भुलाते भावों के संग
मंथर मतवाले बंध लिखूं,
प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।
अस्त व्यस्त सी राह भटकती
हर्ष विकम्पित अंगुलियों से,
तेरी कोमल कन्चन कटि पर
ईक्क्षा के अनुबंध लिखूं,
प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।
भस्म लगाये होश भुलाये
विष पीने को तत्पर शिव सा,
रक्तिम लालायित अधरों पर
अनियन्त्रित सम्बन्ध लिखूं,
प्रेम पगे कुछ छंद लिखूं ।
Monday, January 15, 2007
मटमैला बचपन
मटमैला बचपन
Thursday, January 11, 2007
एक कहानी होना चाहती है ।
भीड़ से दूर बैठना और देखना कि लोग कर क्या रहे हैं, अच्छा तो सभी को लगता ही होगा। हाँ कई लोग अपने मे खोये खोये भी देखे हैं, भीड़ मे रह कर भी, भीड़ से अलग । तो खैर बात सिर्फ़ इतनी की भीड़ काफ़ी थी, अलग ही बैठा सबसे, दीवाल से लग कर एक जगह खाली दिखी सो वहीं जम गये। फ़िर उद्धेश्य भी ससुर कुछ भीड़ टापने का हो तो कहने ही क्या । कह्ते हैं कुवारों के जीवन मे कोई खास समस्या नही रहती सो खुराफ़ात कुछ ज्यादा सूझती है । इन दिनो एक कातिल, जान खाऊ खुराफ़ात अपने ऊपर भी चढी हुयी है, कहानी लिखी जाये । पर कैसे और क्या से मुश्किल है, जाने कैसे वो भवानी दादा को कदम कदम पर मिलने वाले चौराहे कहां मर गये, यहां तो नहीं दिख रही एक भी राह ।
अजीब है कहानी लिख पाना भी, कैसे भई लोग दूसरों को जिनकी जैसी जिन्दगी कभी जी नहीं, जिनको बस किनारे खड़े होकर परखा, जाना, बस देख कर साथ रह कर कैसे लिख देते हैं लोग । लिखना ही क्यों हो, डाक्टर ने बताया है क्या? कभी कभी तो लगता है कमीनापन है। कविता तो ठीक, बहुत सेफ़ तरीका है, रैंप पर आओ कम से कम कपडों मे, मटक कर उधर से इधर, फ़िर इधर से उधर, फ़ैसन है फ़ैसन, हम कहानी लिखें तो नंगे खडे हैं सड़क पर, जो आया दो तीन ढेले मार गया, हट्ट । मेहनत का मोल कहाँ, मोल है पत्थर की चमक का, पथरीली चमक ससुरी । कहानियां आती कहां से होंगी, सपने मे? धत ! यहीं आस पास देख, सुन, समझ, पढ़, सूंघ, और हाँ चख कर । अपने आस-पास और उससे कहीं ज्यादा खुद अपने को सूंघना हर कहीं गिद्ध की तरह निगाहें जमाये, बैठे रहना कमीनापन नहीं तो क्या है । "नहीं ऐसा भी नही, कल्पना भी कोई चीज है, क्या जरूरी है मुझे आम की कहानी लिखनी है तो पेड़ पर लटकना भी पड़े,और तभी आम होना समझा जा सके । कहीं कुछ देखा और फ़िर कभी किसी समय किसी बात किसी एकदम काल्पनिक घटना कह सकने के लिये उसका यूज कर लिया तो बुरायी कहां है", एक दोस्त की बात याद आती है, "सबके पास लफ़्ज नहीं होते मियां, बयां है गर तो, अन्दाज-ए-बयां कहां से लायें, वो कैसे कहें जो कहना है मेरी जान । लेखक शब्द देता है, अबोलों के मौन का मुखर बनता है, तुम समझ सकते हो कि कुछ हुआ तो उसका मतलब क्या है, हो सकता है वैसा सब नहीं समझ पाये, so it's your responcibility, to let others know whatever you think, और कुच लिखने के बाद हल्का सा नहीं पाते अपने आपको, कि जैसे बहुत कुछ लदा हुआ सा था अब उतर गया"। हां इस बात मे थोड़ा दम लगता है, अपनी कुछ लिख कर बड़ाई बटोरने, वाह वाही चाटने, को ढक सके ऐसा एक दमदार गहरा पर्दा । अगर बस स्वान्त: सुखाय, वही हल्का महसूस होना, के जैसे लोगों को कह्स्ते सुना होगा, "भैया, हम तो अपने मन कि खुसी को लिखते हैं, लिखते कहां कविता हो ही जाती है ससुरी।" ऐसा उद्धेश्य रहा होता लिखने का तो भाई लोग चार पन्ने काले करते ही छपवाने की होड़ मे ना पड़ जाते, कवी सम्मेलनों मे सुनने वालों से ज्यादा सुना देने वालों की भीड़( उत्सुक्ता,ललक ) न होती ।
"सुरसरि सम सब कंह हित होई", टाइप कुछ भी लिख पाने का कोई भरोसा किसी को होता होगा क्या? पर हां लिख कर हल्का सा तो लगता है, पर पढने का मजा भी अलग ही है । कई बार अनमने शुरु की गयी किताबें भी धर दबोचती हैं और हां ऐसा ही नही कि कुछ अपने आस पास का लिखा मिले तभी ऐसा हो । पर फ़िर भी लेखक कम कमीने नही लगते, किसी दिन पात्र जिन्दा हो जायें तो चुन चुन कर बद्ला लें । असल जिन्दगी के लोग डर डर कर रहते होंगे लेखकों से कि ना जाने ससुर कब सनक जाये और साला लिख मारे हमारे उपर ही कुछ अन्ट सन्ट, नंगे की खुद इज्जत क्या, नंगा खुदा से चंगा । बाणभट्ट को तो द्विवेदी जी ने बाकायादे चेता दिया उपंयास की बस शुरुआत मे ही, कि बेटा १०० दिन बाद मर जाओगे अगर किसी जिन्दा इंसान की कहानी कविता कुछ भी लिखोगे......ऐसा वैसा लिखा तो वो इन्सान ही नहीं जीने देगा । वैसे हिन्दी मे लिख दो पढ़ते ही बहुत कम लोग हैं, सिकोरिटी है अभी इसमे काफ़ी, अरे हिन्दी साहित्य है कोई हिन्दी पिक्चर थोड़े ही है।
मेरे आस पास क्या हो रहा है, है क्या कोई कहानी ? अंग्रेजी मे हिन्दी बोलता एयरपोर्ट बकबकिया सी आवाज आ रही है,"spice jet आपको ये सूचित करते हैं कि डेल्ही से हैडराबाद जाने वाली उडान संख्या SG-221, ४ घन्टे विलम्ब से जाएगी, अब ये flight भारतीये समयनुसार ८ बजे जाएगी, आप्को हुयी असुविधा के लिये हमें खेद है, धन्यवाद । Spice jet announces delay in it's flight SG-221 from delhi to hyderabad by 4 hours, now this will go at 20 hundered hours that is 8PM by indian time, we regret any inconvenience caused. " एनी इन्कंवीनिएस, स्याले....मैं नही बगल मे बैठे टोपी वाले अंकल बोलते हैं ।
"सुन नयन आज नये साल पर एक बात बताता हूं, ध्यान से सुनियो, फ़िर कोई बताये ना बताये। यार भगवान जब भी देता है, पूरा फ़ाड़ देता है, छप्पर।"
"बावला हो गिया है क्या, क्या बक रिया है?"
"अरे यार कल की कैंसिल हो गयी थी, आज साली ४ घन्टे लेट है, इसकी मां..."
"हे हे हे हे हे, हा हा हा हा.. ए हे हे हे हे, लग गयी साले तेरी तो", फोन पर भी नयन फ़ूट फ़ूट कर हंसता है, "पर कोई नहीं टूरिस्ट टापो, गोवा जाने वाली गोवने नहीं हैं क्या वहां, आप तो साब लेखक हो रिये हो आज कल, लिख मारो कोई कहानी, किसी गोवन के नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहे म्रदुल अधखुले अंग पर?"
"नये साल पर मैं ही मिला हूं तेरा जोय शंकर पाठ पधने के लिये, अच्छा रखता हूं साले, रोमिंग पर हूं ।"
"चल कट ले ।"
मैं गम्भीर नागरिक हूं, उससे कहीं ज्यादा, गंभीर लेखक सो अपने आस पास कहानियों की खोज करता हूं । आस पास कुछ फ़ुटकर कहानियां थोक में बिखरी हुयी दिख रही हैं, एक एक कर बताता चलता हूं ।
कहानी जाड़ों मे भी न जड़ाने वाली हसीना की
(शेष आगे.....)
अजीब है कहानी लिख पाना भी, कैसे भई लोग दूसरों को जिनकी जैसी जिन्दगी कभी जी नहीं, जिनको बस किनारे खड़े होकर परखा, जाना, बस देख कर साथ रह कर कैसे लिख देते हैं लोग । लिखना ही क्यों हो, डाक्टर ने बताया है क्या? कभी कभी तो लगता है कमीनापन है। कविता तो ठीक, बहुत सेफ़ तरीका है, रैंप पर आओ कम से कम कपडों मे, मटक कर उधर से इधर, फ़िर इधर से उधर, फ़ैसन है फ़ैसन, हम कहानी लिखें तो नंगे खडे हैं सड़क पर, जो आया दो तीन ढेले मार गया, हट्ट । मेहनत का मोल कहाँ, मोल है पत्थर की चमक का, पथरीली चमक ससुरी । कहानियां आती कहां से होंगी, सपने मे? धत ! यहीं आस पास देख, सुन, समझ, पढ़, सूंघ, और हाँ चख कर । अपने आस-पास और उससे कहीं ज्यादा खुद अपने को सूंघना हर कहीं गिद्ध की तरह निगाहें जमाये, बैठे रहना कमीनापन नहीं तो क्या है । "नहीं ऐसा भी नही, कल्पना भी कोई चीज है, क्या जरूरी है मुझे आम की कहानी लिखनी है तो पेड़ पर लटकना भी पड़े,और तभी आम होना समझा जा सके । कहीं कुछ देखा और फ़िर कभी किसी समय किसी बात किसी एकदम काल्पनिक घटना कह सकने के लिये उसका यूज कर लिया तो बुरायी कहां है", एक दोस्त की बात याद आती है, "सबके पास लफ़्ज नहीं होते मियां, बयां है गर तो, अन्दाज-ए-बयां कहां से लायें, वो कैसे कहें जो कहना है मेरी जान । लेखक शब्द देता है, अबोलों के मौन का मुखर बनता है, तुम समझ सकते हो कि कुछ हुआ तो उसका मतलब क्या है, हो सकता है वैसा सब नहीं समझ पाये, so it's your responcibility, to let others know whatever you think, और कुच लिखने के बाद हल्का सा नहीं पाते अपने आपको, कि जैसे बहुत कुछ लदा हुआ सा था अब उतर गया"। हां इस बात मे थोड़ा दम लगता है, अपनी कुछ लिख कर बड़ाई बटोरने, वाह वाही चाटने, को ढक सके ऐसा एक दमदार गहरा पर्दा । अगर बस स्वान्त: सुखाय, वही हल्का महसूस होना, के जैसे लोगों को कह्स्ते सुना होगा, "भैया, हम तो अपने मन कि खुसी को लिखते हैं, लिखते कहां कविता हो ही जाती है ससुरी।" ऐसा उद्धेश्य रहा होता लिखने का तो भाई लोग चार पन्ने काले करते ही छपवाने की होड़ मे ना पड़ जाते, कवी सम्मेलनों मे सुनने वालों से ज्यादा सुना देने वालों की भीड़( उत्सुक्ता,ललक ) न होती ।
"सुरसरि सम सब कंह हित होई", टाइप कुछ भी लिख पाने का कोई भरोसा किसी को होता होगा क्या? पर हां लिख कर हल्का सा तो लगता है, पर पढने का मजा भी अलग ही है । कई बार अनमने शुरु की गयी किताबें भी धर दबोचती हैं और हां ऐसा ही नही कि कुछ अपने आस पास का लिखा मिले तभी ऐसा हो । पर फ़िर भी लेखक कम कमीने नही लगते, किसी दिन पात्र जिन्दा हो जायें तो चुन चुन कर बद्ला लें । असल जिन्दगी के लोग डर डर कर रहते होंगे लेखकों से कि ना जाने ससुर कब सनक जाये और साला लिख मारे हमारे उपर ही कुछ अन्ट सन्ट, नंगे की खुद इज्जत क्या, नंगा खुदा से चंगा । बाणभट्ट को तो द्विवेदी जी ने बाकायादे चेता दिया उपंयास की बस शुरुआत मे ही, कि बेटा १०० दिन बाद मर जाओगे अगर किसी जिन्दा इंसान की कहानी कविता कुछ भी लिखोगे......ऐसा वैसा लिखा तो वो इन्सान ही नहीं जीने देगा । वैसे हिन्दी मे लिख दो पढ़ते ही बहुत कम लोग हैं, सिकोरिटी है अभी इसमे काफ़ी, अरे हिन्दी साहित्य है कोई हिन्दी पिक्चर थोड़े ही है।
मेरे आस पास क्या हो रहा है, है क्या कोई कहानी ? अंग्रेजी मे हिन्दी बोलता एयरपोर्ट बकबकिया सी आवाज आ रही है,"spice jet आपको ये सूचित करते हैं कि डेल्ही से हैडराबाद जाने वाली उडान संख्या SG-221, ४ घन्टे विलम्ब से जाएगी, अब ये flight भारतीये समयनुसार ८ बजे जाएगी, आप्को हुयी असुविधा के लिये हमें खेद है, धन्यवाद । Spice jet announces delay in it's flight SG-221 from delhi to hyderabad by 4 hours, now this will go at 20 hundered hours that is 8PM by indian time, we regret any inconvenience caused. " एनी इन्कंवीनिएस, स्याले....मैं नही बगल मे बैठे टोपी वाले अंकल बोलते हैं ।
"सुन नयन आज नये साल पर एक बात बताता हूं, ध्यान से सुनियो, फ़िर कोई बताये ना बताये। यार भगवान जब भी देता है, पूरा फ़ाड़ देता है, छप्पर।"
"बावला हो गिया है क्या, क्या बक रिया है?"
"अरे यार कल की कैंसिल हो गयी थी, आज साली ४ घन्टे लेट है, इसकी मां..."
"हे हे हे हे हे, हा हा हा हा.. ए हे हे हे हे, लग गयी साले तेरी तो", फोन पर भी नयन फ़ूट फ़ूट कर हंसता है, "पर कोई नहीं टूरिस्ट टापो, गोवा जाने वाली गोवने नहीं हैं क्या वहां, आप तो साब लेखक हो रिये हो आज कल, लिख मारो कोई कहानी, किसी गोवन के नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहे म्रदुल अधखुले अंग पर?"
"नये साल पर मैं ही मिला हूं तेरा जोय शंकर पाठ पधने के लिये, अच्छा रखता हूं साले, रोमिंग पर हूं ।"
"चल कट ले ।"
मैं गम्भीर नागरिक हूं, उससे कहीं ज्यादा, गंभीर लेखक सो अपने आस पास कहानियों की खोज करता हूं । आस पास कुछ फ़ुटकर कहानियां थोक में बिखरी हुयी दिख रही हैं, एक एक कर बताता चलता हूं ।
कहानी जाड़ों मे भी न जड़ाने वाली हसीना की
(शेष आगे.....)
Tuesday, January 9, 2007
भस्मासुर की मौत
नदी भावनाओं की उफ़नती
शब्दों के किनारों को तोड़ती
गति यति अलंकार शैली और छंदों के
घाट, पेड़, झोपड़े और बजार कुचलती
अंदर तक घुस आयी है
मेरे अपने आंगन तक
सब कुछ बह गया बाढ़ में मेरा
और इस सब कुछ के खो जाने की खुशी
नंगे आसमान के नीचे
सर पर हाथ रख
भस्मासुर बन नाच रहा हूं
विश्वमोहिनी के साथ
मस्त, ताक धिन, ताक धिन...
कहीं गुम होना
प्रथम मिलन के घून्घट सा है
अबूझ, अंजान, उलझा, आकर्षण
भस्मासुर होने का दंड क्या है
खुद को खोना
और ये सोंच कर
इस बाढ़ में मैं छत पर
बाढ़ से बचा बैठा नहीं रह पाता
कूद पड़ता हूं नदी के तांडव में
बेशक मरने के लिये
भस्मासुर की मौत की खुशी में
कहीं दूर ढोलक की थापों पर
एक कविता जन्म लेती है.
शब्दों के किनारों को तोड़ती
गति यति अलंकार शैली और छंदों के
घाट, पेड़, झोपड़े और बजार कुचलती
अंदर तक घुस आयी है
मेरे अपने आंगन तक
सब कुछ बह गया बाढ़ में मेरा
और इस सब कुछ के खो जाने की खुशी
नंगे आसमान के नीचे
सर पर हाथ रख
भस्मासुर बन नाच रहा हूं
विश्वमोहिनी के साथ
मस्त, ताक धिन, ताक धिन...
कहीं गुम होना
प्रथम मिलन के घून्घट सा है
अबूझ, अंजान, उलझा, आकर्षण
भस्मासुर होने का दंड क्या है
खुद को खोना
और ये सोंच कर
इस बाढ़ में मैं छत पर
बाढ़ से बचा बैठा नहीं रह पाता
कूद पड़ता हूं नदी के तांडव में
बेशक मरने के लिये
भस्मासुर की मौत की खुशी में
कहीं दूर ढोलक की थापों पर
एक कविता जन्म लेती है.
Thursday, January 4, 2007
पान्चाली
छोटा कस्बा, दोपहर का समय, चौराहे पर फ़िर भी सन्नाटा नहीं था, एक विशेष कारण से। सिगरेट के धुयें से घिरे कुछ लड़के दुनिया और भाग्य की चाशनी बना कर चाट रहे थे। यहां खड़े होने का कोई खास कारण नहीं था,बस ये कि गर्ल्स काँलेज में छुट्टी बस होने ही वाली थी। तो ऐसे समय पर साली धूप भी क्या चीज है ।
धूप से थकी घड़ी ने ३:३० बजाये और उसी के जैसे राहों पर बिछे मुरझाये फूल खिलने और,काँलेज गेट के खुलने का इन्तजार करने लगे। जिन्हे आदत नही वो सर झुकाये, और बाकी खिलखिलाती लड़कियों की प्रदर्शनी सड़क पर चलने लगी। एक औटो ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया, कुछ खास ही था उसमें,शायद कोई लड़की अपना दुपट्टा सम्भालना भूलकर सामान सम्भालने में लगी थी, दुपट्टा बाहर फ़हरा रहा था।
सड़क पर खड़े भाईयों से देखा ना गया और वो पतंग के साथ-साथ चर्खी की भी मांग करने लगे, मांगें पूरी न होती दिखिं, या लगा अनसुनी हो गयीं, तो पास जाकर बताने का लोभ सम्वरण ना कर सके। एक महारथी की मोटरसाईकिल घरघरा उठी, और ये जा वो जा। लड़की अब भी बेखबर थी, शायद इसी लिये दुपट्टा उसी शान से फ़हरा रहा था।
सारथी ने रथी को इशारे से रणनीति समझायी, आंखों के कुछ इशारे और ठहाके गूंज उठे, अर्जुन ने कृश्ण से आग्रह किया," मधुसूदन रथ की स्पीड बढायें, मैं आज कुछ कर ही दिखाऊंगा"..
मधुसूदन उवाच,"ये ले साले ,तु भी क्या याद करेगा, कर ले सारे अरमान पूरे।
रास रचईया ने एक्सीलेटर पर पकड़ मजबूत की और रथ औटो के साथ चल रहा था। हां इस बीच सारथी और रथी दोनों ने दो दो हाथ अपने अपने केशों के बीच भी फ़िराये थे, और रथी ने तो १ या २ बटन भी खोल दिये थे, कहने कि अवश्यक्ता नहिं है फ़िर भी निःसन्देह शर्ट के ही।
रथ के औटो के साथ आते ही भामापति,बन गये दुर्योधन और रथी को अर्जुन से दुश्शासन बनाते हुये आदेश दिया,"मैदान साफ़ है ,खीन्च बे खीन्च"।
दुश्शासन कलयुगी था कदाचित भयभीत भी, औटो में बैठी पन्चाली की ओर बिना देखे, बस दुपट्टे कि ओर इशारा करते हुये बोलता भया,"अबे पूछ तो ले, इसके पीछे क्या क्या छुपाये रहती है"।
लड़की, अरे वही जो कि पान्चाली थी और उड़ते दुपट्टे के पीछे जाने क्या क्या छुपाये रहती थी, अब भी, ना चीर बढ़ाने वाले श्री कृश्ण को याद कर रही थी, ना भीष्म, द्रोणाचार्य और अपने पतियों को गालियों से नहला रही थी। ससुरी वो भी कलयुगी जो ठहरी, क्या पता खुद ही उछल कर बैठ ही जाये दुर्योधन की जन्घा पर!!
औटो वाला दुश्शासन और उसके अग्रज का(जो कलयुग में सिगरेटिये मित्र बन कर अवतरित हुये थे), अभिप्राय समझ गया था, और एक्सीलेटर बढ़ाने पर बस पकड़ मजबूत करने ही जा रहा था, पर हस्तिनापुर युवराज से कौन पंगा ले, उसने देखा ही नहीं।
औटो में पान्चाली अकेली नहीं सत्यभामा और रुक्मिनी भी थीं, लेकिन पन्चाली को देखते ही दुर्योधन ,अपने असली रूप में आ गया, डाईरेक्टर कि आवाज गून्ज रही थी, "कट कट", क्योंकि डाईलाग था,"हमारे लिये बाहर उड़ा रखा है क्या?", पर दुर्योधन ने "हमारे लिये" के बाद कहा "मम्मी आप"...
- रवीन्द्र नाथ भारतीय
धूप से थकी घड़ी ने ३:३० बजाये और उसी के जैसे राहों पर बिछे मुरझाये फूल खिलने और,काँलेज गेट के खुलने का इन्तजार करने लगे। जिन्हे आदत नही वो सर झुकाये, और बाकी खिलखिलाती लड़कियों की प्रदर्शनी सड़क पर चलने लगी। एक औटो ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया, कुछ खास ही था उसमें,शायद कोई लड़की अपना दुपट्टा सम्भालना भूलकर सामान सम्भालने में लगी थी, दुपट्टा बाहर फ़हरा रहा था।
सड़क पर खड़े भाईयों से देखा ना गया और वो पतंग के साथ-साथ चर्खी की भी मांग करने लगे, मांगें पूरी न होती दिखिं, या लगा अनसुनी हो गयीं, तो पास जाकर बताने का लोभ सम्वरण ना कर सके। एक महारथी की मोटरसाईकिल घरघरा उठी, और ये जा वो जा। लड़की अब भी बेखबर थी, शायद इसी लिये दुपट्टा उसी शान से फ़हरा रहा था।
सारथी ने रथी को इशारे से रणनीति समझायी, आंखों के कुछ इशारे और ठहाके गूंज उठे, अर्जुन ने कृश्ण से आग्रह किया," मधुसूदन रथ की स्पीड बढायें, मैं आज कुछ कर ही दिखाऊंगा"..
मधुसूदन उवाच,"ये ले साले ,तु भी क्या याद करेगा, कर ले सारे अरमान पूरे।
रास रचईया ने एक्सीलेटर पर पकड़ मजबूत की और रथ औटो के साथ चल रहा था। हां इस बीच सारथी और रथी दोनों ने दो दो हाथ अपने अपने केशों के बीच भी फ़िराये थे, और रथी ने तो १ या २ बटन भी खोल दिये थे, कहने कि अवश्यक्ता नहिं है फ़िर भी निःसन्देह शर्ट के ही।
रथ के औटो के साथ आते ही भामापति,बन गये दुर्योधन और रथी को अर्जुन से दुश्शासन बनाते हुये आदेश दिया,"मैदान साफ़ है ,खीन्च बे खीन्च"।
दुश्शासन कलयुगी था कदाचित भयभीत भी, औटो में बैठी पन्चाली की ओर बिना देखे, बस दुपट्टे कि ओर इशारा करते हुये बोलता भया,"अबे पूछ तो ले, इसके पीछे क्या क्या छुपाये रहती है"।
लड़की, अरे वही जो कि पान्चाली थी और उड़ते दुपट्टे के पीछे जाने क्या क्या छुपाये रहती थी, अब भी, ना चीर बढ़ाने वाले श्री कृश्ण को याद कर रही थी, ना भीष्म, द्रोणाचार्य और अपने पतियों को गालियों से नहला रही थी। ससुरी वो भी कलयुगी जो ठहरी, क्या पता खुद ही उछल कर बैठ ही जाये दुर्योधन की जन्घा पर!!
औटो वाला दुश्शासन और उसके अग्रज का(जो कलयुग में सिगरेटिये मित्र बन कर अवतरित हुये थे), अभिप्राय समझ गया था, और एक्सीलेटर बढ़ाने पर बस पकड़ मजबूत करने ही जा रहा था, पर हस्तिनापुर युवराज से कौन पंगा ले, उसने देखा ही नहीं।
औटो में पान्चाली अकेली नहीं सत्यभामा और रुक्मिनी भी थीं, लेकिन पन्चाली को देखते ही दुर्योधन ,अपने असली रूप में आ गया, डाईरेक्टर कि आवाज गून्ज रही थी, "कट कट", क्योंकि डाईलाग था,"हमारे लिये बाहर उड़ा रखा है क्या?", पर दुर्योधन ने "हमारे लिये" के बाद कहा "मम्मी आप"...
- रवीन्द्र नाथ भारतीय
Tuesday, December 19, 2006
Monday, December 18, 2006
Wednesday, December 13, 2006
अंश
तुम्हे देखा नहीं,सुना है, महसूस किया है। हजारों मील दूर लेटे तुम पतली सी आवाज़ में धीरे से ,बस ऎं-ऎं सा करते हो, कोई अनजाना सा, किसी अबूझ पहेली सा कोई मन्त्र फ़ूंकते हो, मैं नासमझ कुछ समझ नहीं पाता। पर जाने क्यों मैं कहाँ हूं, क्या हूं, कब तक हूं, सब भूल जाता हुं। सबके सामने खड़े होकर, लम्बी बातें बना सकता हूं पर तुम जो सामने भी नहीं, और पता है की कुछ बोल भी नही पाओगे, चुप कैसे कर देते हो?
तुम चुप से बस हल्की सी आं-आं करते हो, लगता है एकाएक कोई झरना फ़ूटा हो बस देखते देखते, अभी बस एक पल पहले था तो बस पथरीला सन्नाटा था। गर्मी की दोपहर और हल्की हल्की फ़ुहारें पंख पसारे चली आयी हों बस एक पल में, ठंडक..... भीतर बाहर हर कहीं । मन का भ्रम होगा पर तुम अपनी भाषा में कुछ कहते हो, मिलो तो,समझने की कोशिश करुंगा, समझने दोगे ना?
भले ही कभी देखा न हो, पर सुन-सुन कर देखी है तुम्हारी आधी बन्द, अधी खुली सी आँखें, छोटी सी नाक, कान, हाथ, पाँव नन्हे-नन्हे से। सब कुछ इतना मासूम की डर लगे फोन पर भी। मासूमियत बेहद डरावनी भी हो सकती है...
Sunday, December 10, 2006
अनगढ़ कविता
अनगढ़ कविता
कुछ अनगढ़ कवितायें हैं।
जिन्हे अगर जोड़ा जाता
लिख डालने वाले
कलाकार कि तरह जिन्हे
हां अगर रुक रुक कर आहिस्ता- आहिस्ता,
हौले-हौले, तराशते,
तो अच्छी लग सकती थीं
लिखने वाले के अलावा किसी और को भी।
हो सकता है कला का,
नायाब नमूना बन जातीं वो,
या किसी म्युजियम किसी लाईबरेरी किसी प्रदर्शनी में
मंचों के रास्ते लोगों के सर चढ़ जातीं ।
लेकिन वो कवितायें अनगढ़ थीं,
गाँव की पगडंडी की तरह।
खंडहर में बाकी बची,
एक टूटी खिड़की की तरह,
जंग लगी, दीमक लगी लकड़ी।
कच्चा घड़ा नही, अरे नहीं,
वो तो बहुत चिकना होता है, रूखा मिट्टी का ढेला।
जिनको तुम पढ़ोगे तो नकार दोगे एक सिरे से,
और लिखने वाले ने भी ये सोच कर कहां लिखा,
कि तुम्हे अच्छी लगे।
या कोई देखे और कहे भई वाह।
कलम उठी, मन में बसी टीस,
कागज पर बेलौस बेढ़ंगे तरीके से,
दे मारी थी बस।
कुछ भीतर से बाहर आने को कुलबुला रहा था,
लावा सा, उछल कर छलछला पड़ा, एकदम बेतरतीब।
मजदूर के फ़ावड़े से काटी गयी,
किसान के हल से खोदी गयी,
ज़मीन,
चिकनी हो सकती है ??
हो सकती है कलाकार की कला से सजी,
सुन्दर नयिका कि कमर सी वर्तुल, कोमल,
जिससे छूते भी झिझक लगे,
मादक, मोहक, पथरीली नायिका,
कहीं झिड़क ही ना दे,
दूर हटो गन्दे हाथ!!
अनगढ़ कविता,
तथागत के लिये खीर लायी सुजाता,
नयिका, जिसका सौन्दर्य, जिसकी कला,
किसी सुनहरे महल की बपौती नहीं,
राह की फ़कीर की एक झलक की भूखी है।
मुक्त, शुद्ध, हर क्षण नवीन,
धरती पर लोटती दोपहर,
हाँ धूप की तरह,
अपनी पवित्रता से सभी की आँखों में चुभती।
अनगढ़ कविता सच्ची है,
जैसे कोई छोटा बच्चा,
मुह फ़ुला कर एक पल बैठा,
फ़िर हंस कर खेलने लगता है ना वैसे।
उसे क्या पता रोते समय,
जाने क्या क्या भी याद किया जाता है,
सन्दर्भ और प्रसंग ढ़ूंढ़ा जाता है।
अलंकारों की चाशनी बनायी जाती है,
तुक का पतीला , सुन्दर सुडौल शब्दों के चूल्हे पर,
जतन से चढ़ाया जाता है,
और तब रोने के बारे में सोंचा जाता है।
अनगढ़ कवितायें रोती हैं,
क्योंकी रोने के सिवा उस समय कुछ सोच नहीं पातीं,
हंसती भी हैं, कारण वही,
शर्माती भी हैं,
पर जरुरी नहीं कोई घूंघट हो ही,
नंगी शरम देखी है कभी??
स्वार्थी अनगढ़ कविता,
रोती, हंसती, शर्माती,
फ़ुदक-फ़ुदक बस अपने लिये गाती है,
अमरबेल बन जीती है।
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